Sunday, February 28, 2010
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "सप्तम सर्ग "
रथ सजा, भेरियां घमक उठीं, गहगहा उठा अम्बर विशाल ,
कूदा स्यन्दन पर गरज कर्ण ज्यों उठे गरज क्रोधान्ध काल .
बज उठे रोर कर पटह-कम्बु, उल्लसित वीर कर उठे हूह ,
उच्छल सागर-सा चला कर्ण को लिये क्षुब्ध सैनिक समूह .
अङगार-वृष्टि पा धधक उठे जिस तरह शुष्क कानन का तृण ,
सकता न रोक शस्त्री की गति पुञ्जित जैसे नवनीत मसृण .
यम के समक्ष जिस तरह नहीं चल पाता बद्ध मनुज का वश ,
हो गयी पाण्डवों की सेना त्योंही बाणों से विध्द, विवश .
भागने लगे नरवीर छोड वह दिशा जिधर भी झुका कर्ण ,
भागे जिस तरह लवा का दल सामने देख रोषण सुपर्ण !
'रण में क्यों आये आज ?' लोग मन-ही-मन में पछताते थे ,
दूर से देखकर भी उसको, भय से सहमे सब जाते थे .
काटता हुआ रण-विपिन क्षुब्ध, राधेय गरजता था क्षण-क्षण .
सुन-सुन निनाद की धमक शत्रु का, व्यूह लरजता था क्षण-क्षण .
अरि की सेना को विकल देख, बढ चला और कुछ समुत्साह ;
कुछ और समुद्वेलित होकर, उमड़ा भुज का सागर अथाह .
गरजा अशंक हो कर्ण, ''शल्य ! देखो कि आज क्या करता हूं ,
कौन्तेय-कृष्ण, दोनों को ही, जीवित किस तरह पकड़ता हूं .
बस, आज शाम तक यहीं सुयोधन का जय-तिलक सजा करके ,
लौटेंगे हम, दुन्दुभि अवश्य जय की, रण-बीच बजा करके .
इतने में कुटिल नियति-प्रेरित पड गये सामने धर्मराज ,
टूटा कृतान्त-सा कर्ण, कोक पर पडे टूट जिस तरह बाज .
लेकिन, दोनों का विषम यु्द्ध, क्षण भर भी नहीं ठहर पाया ,
सह सकी न गहरी चोट, युधिष्ठिर की मुनि-कल्प, मृदुल काया .
भागे वे रण को छोड, ककर्ण ने झपट दौड़कर गहा ग्रीव ,
कौतुक से बोला, ''महाराज ! तुम तो निकले कोमल अतीव .
हां, भीरु नहीं, कोमल कहकर ही, जान बचाये देता हूं .
आगे की खातिर एक युक्ति भी सरल बताये देता हूं .
''हैं विप्र आप, सेविये धर्म, तरु-तले कहीं, निर्जन वन में ,
क्या काम साधुओं का, कहिये, इस महाघोर, घातक रण में ?
मत कभी क्षात्रता के धोखे, रण का प्रदाह झेला करिये,
जाइये, नहीं फिर कभी गरुड की झपटों से खेला करिये .''
भागे विपन्न हो समर छोड ग्लानि में निमज्जित धर्मराज ,
सोचते, 'कहेगा क्या मन में जानें, यह शूरों का समाज ?
प्राण ही हरण करके रहने क्यों नहीं हमारा मान दिया ?
आमरण ग्लानि सहने को ही पापी ने जीवन-दान दिया .'
समझे न हाय, कौन्तेय ! कर्ण ने छोड दिये, किसलिए प्राण ,
गरदन पर आकर लौट गयी सहसा, क्यों विजयी की कृपाण ?
लेकिन, अदृश्य ने लिखा, कर्ण ने वचन धर्म का पाल किया,
खड्ग का छीन कर ग्रास, उसे मां के अञ्चल में डाल दिया .
कितना पवित्र यह शील ! कर्ण जब तक भी रहा खडा रण में ,
चेतनामयी मां की प्रतिमा घूमती रही तब तक मन में .
सहदेव, युधिष्ठर, नकुल, भीम को बार-बार बस में लाकर,
कर दिया मुक्त हंस कर उसने भीतर से कुछ इङिगत पाकर .
देखता रहा सब शल्य, किन्तु, जब इसी तरह भागे पवितन ,
बोला होकर वह चकित, कर्ण की ओर देख, यह परुष वचन ,
''रे सूतपुत्र ! किसलिए विकट यह कालपृष्ठ धनु धरता है ?
मारना नहीं है तो फिर क्यों, वीरों को घेर पकडता है ?''
''संग्राम विजय तू इसी तरह सन्ध्या तक आज करेगा क्या ?
मारेगा अरियों को कि उन्हें दे जीवन स्वयं मरेगा क्या ?
रण का विचित्र यह खेल, मुझे तो समझ नहीं कुछ पडता है ,
कायर ! अवश्य कर याद पार्थ की, तू मन ही मन डरता है .''
हंसकर बोला राधेय, ''शल्य, पार्थ की भीति उसको होगी ,
क्षयमान्, क्षणिक, भंगुर शरीर पर मृषा प्रीति जिसको होगी .
इस चार दिनों के जीवन को, मैं तो कुछ नहीं समझता हूं ,
करता हूं वही, सदा जिसको भीतर से सही समझता हूं .
''पर ग्रास छीन अतिशय बुभुक्षु, अपने इन बाणों के मुख से ,
होकर प्रसन्न हंस देता हूं, चञ्चल किस अन्तर के सुख से ;
यह कथा नहीं अन्त:पुर की, बाहर मुख से कहने की है ,
यह व्यथा धर्म के वर-समान, सुख-सहित, मौन सहने की है .
''सब आंख मूंद कर लडते हैं, जय इसी लोक में पाने को ,
पर, कर्ण जूझता है कोई, ऊंचा सद्धर्म निभाने को ,
सबके समेत पंकिल सर में, मेरे भी चरण पडेंग़े क्या ?
ये लोभ मृत्तिकामय जग के, आत्मा का तेज हरेंगे क्या ?
यह देह टूटने वाली है, इस मिट्टी का कब तक प्रमाण ?
मृत्तिका छोड ऊपर नभ में भी तो ले जाना है विमान .
कुछ जुटा रहा सामान खमण्डल में सोपान बनाने को ,
ये चार फुल फेंके मैंने, ऊपर की राह सजाने को
ये चार फुल हैं मोल किन्हीं कातर नयनों के पानी के ,
ये चार फुल प्रच्छन्न दान हैं किसी महाबल दानी के .
ये चार फुल, मेरा अदृष्ट था हुआ कभी जिनका कामी,
ये चार फुल पाकर प्रसन्न हंसते होंगे अन्तर्यामी .''
''समझोगे नहीं शल्य इसको, यह करतब नादानों का हैं ,
ये खेल जीत से बडे क़िसी मकसद के दीवानों का हैं .
जानते स्वाद इसका वे ही, जो सुरा स्वप्न की पीते हैं ,
दुनिया में रहकर भी दुनिया से अलग खडे ज़ो जीते हैं .''
समझा न, सत्य ही, शल्य इसे, बोला ''प्रलाप यह बन्द करो ,
हिम्मत हो तो लो करो समर,बल हो, तो अपना धनुष धरो .
लो, वह देखो, वानरी ध्वजा दूर से दिखायी पडती है ,
पार्थ के महारथ की घर्घर आवाज सुनायी पडती है .''
''क्या वेगवान हैं अश्व ! देख विधुत् शरमायी जाती है ,
आगे सेना छंट रही, घटा पीछे से छायी जाती है .
राधेय ! काल यह पहंुच गया, शायक सन्धानित तूर्ण करो ,
थे विकल सदा जिसके हित, वह लालसा समर की पूर्ण करो .''
पार्थ को देख उच्छल - उमंग - पूरित उर - पारावार हुआ ,
दम्भोलि-नाद कर कर्ण कुपित अन्तक-सा भीमाकार हुआ .
वोला ''विधि ने जिस हेतु पार्थ ! हम दोनों का निर्माण किया ,
जिस लिए प्रकृति के अनल-तत्त्व का हम दोनों ने पान किया .
''जिस दिन के लिए किये आये, हम दोनों वीर अथक साधन ,
आ गया भाग्य से आज जन्म-जन्मों का निर्धारित वह क्षण .
आओ, हम दोनों विशिख-वह्नि-पूजित हो जयजयकार करें ,
ममच्छेदन से एक दूसरे का जी-भर सत्कार करें .''
''पर, सावधान, इस मिलन-बिन्दु से अलग नहीं होना होगा ,
हम दोनों में से किसी एक को आज यहीं सोना होगा .
हो गया बडा अतिकाल, आज निर्णय अन्तिम कर लेना है ,
शत्रु का या कि अपना मस्तक, काट कर यहीं धर देना है .''
कर्ण का देख यह दर्प पार्थ का, दहक उठा रविकान्त-हृदय ,
बोला, ''रे सारथि-पुत्र ! किया तू ने, सत्य ही योग्य निश्चय .
पर कौन रहेगा यहां ? बात यह अभी बताये देता हूं ,
धड पर से तेरा सीस मूढ ! ले, अभी हटाये देता हूं .''
यह कह अर्जुन ने तान कान तक, धनुष-बाण सन्धान किया ,
अपने जानते विपक्षी को हत ही उसने अनुमान किया .
पर, कर्ण झेल वह महा विशिक्ष, कर उठा काल-सा अट्टहास ,
रण के सारे स्वर डूब गये, छा गया निनद से दिशाकाश .
वोला, ''शाबाश, वीर अर्जुन ! यह खूब गहन सत्कार रहा ;
पर, बुरा न मानो, अगर आन कर मुझ पर वह बेकार रहा .
मत कवच और कुण्डल विहीन, इस तन को मृदुल कमल समझो ,
साधना-दीप्त वक्षस्थल को, अब भी दुर्भेद्य अचल समझो .''
''अब लो मेरा उपहार, यही यमलोक तुम्हें पहुंचायेगा ,
जीवन का सारा स्वाद तुम्हें बस, इसी बार मिल जायेगा .''
कह इस प्रकार राधेय अधर को दबा, रौद्रता में भरके ,
हुङकार उठा घातिका शक्ति विकराल शरासन पर धरके .''
संभलें जब तक भगवान्, नचायें इधर-उधर किञ्चित स्यन्दन ,
तब तक रथ में ही, विकल, विध्द, मूच्र्छित हो गिरा पृथानन्दन .
कर्ण का देख यह समर-शौर्य सङगर में हाहाकार हुआ ,
सब लगे पूछने, ''अरे, पार्थ का क्या सचमुच संहार हुआ ?''
पर नहीं, मरण का तट छूकर, हो उठा अचिर अर्जुन प्रबुध्द ;
क्रोधान्ध गरज कर लगा कर्ण के साथ मचाने द्विरथ-युध्द .
प्रावृट्-से गरज-गरज दोनों, करते थे प्रतिभट पर प्रहार ,
थी तुला-मध्य सन्तुलित खडी, लेकिन दोनों की जीत हार .
इस ओर कर्ण र्मात्तण्ड-सदृश, उस ओर पार्थ अन्तक-समान ,
रण के मिस, मानो, स्वयं प्रलय, हो उठा समर में मूर्तिमान .
जूझता एक क्षण छोड, स्वत:, सारी सेना विस्मय-विमुग्ध ,
अपलक होकर देखने लगी दो शितिकण्ठों का विकट युध्द .
है कथा, नयन का लोभ नहीं, संवृत कर सके स्वयं सुरगण ,
भर गया विमानों से तिल-तिल, कुरुभू पर कलकल-नदित-गगन .
थी रुकी दिशा की सांस, प्रकृति के निखिल रुप तन्मय-गभीर ,
ऊपर स्तम्भित दिनमणि का रथ, नीचे नदियों का अचल नीर .
इतने में शर के कर्ण ने देखा जो अपना निषङग ,
तरकस में से फुङकार उठा, कोई प्रचण्ड विषधर भूजङग ,
कहता कि ''कर्ण! मैं अश्वसेन विश्रुत भुजंगो का स्वामी हूं,
जन्म से पार्थ का शत्रु परम, तेरा बहुविधि हितकामी हूं .
''बस, एक बार कर कृपा धनुष पर चढ शरव्य तक जाने दे ,
इस महाशत्रु को अभी तुरत स्यन्दन में मुझे सुलाने दे .
कर वमन गरल जीवन भर का सञ्चित प्रतिशोध उतारूंगा ,
तू मुझे सहारा दे, बढक़र मैं अभी पार्थ को मारूंगा .''
राधेय जरा हंसकर बोला, ''रे कुटिल! बात क्या कहता है ?
जय का समस्त साधन नर का अपनी बांहों में रहता है .
उस पर भी सांपों से मिल कर मैं मनुज, मनुज से युध्द करूं ?
जीवन भर जो निष्ठा पाली, उससे आचरण विरुध्द करूं ?''
''तेरी सहायता से जय तो मैं अनायास पा जाऊंगा ,
आनेवाली मानवता को, लेकिन, क्या मुख दिखलाऊंगा ?
संसार कहेगा, जीवन का सब सुकृत कर्ण ने क्षार किया ;
प्रतिभट के वध के लिए सर्प का पापी ने साहाय्य लिया .''
''हे अश्वसेन ! तेरे अनेक वंशज हैं छिपे नरों में भी ,
सीमित वन में ही नहीं, बहुत बसते पुर-ग्राम-घरों में भी .
ये नर-भुजङग मानवता का पथ कठिन बहुत कर देते हैं ,
प्रतिबल के वध के लिए नीच साहाय्य सर्प का लेते हैं .''
''ऐसा न हो कि इन सांपो में मेरा भी उज्ज्वल नाम चढे .
पाकर मेरा आदर्श और कुछ नरता का यह पाप बढे .
अर्जुन है मेरा शत्रु, किन्तु वह सर्प नहीं, नर ही तो है ,
संघर्ष सनातन नहीं, शत्रुता इस जीवन भर ही तो है .''
''अगला जीवन किसलिए भला, तब हो द्वेषान्ध बिगाडं मैं ?
सांपो की जाकर शरण, सर्प बन क्यों मनुष्य को मारूं मैं ?
जा भाग, मनुज का सहज शत्रु, मित्रता न मेरी पा सकता ,
मैं किसी हेतु भी यह कलङक अपने पर नहीं लगा सकता .''
काकोदार को कर विदा कर्ण, फिर बढा समर में गर्जमान,
अम्बर अनन्त झङकार उठा, हिल उठे निर्जरों के विमान .
तूफ़ान उठाये चला कर्ण बल से धकेल अरि के दल को,
जैसे प्लावन की धार बहाये चले सामने के जल को.
पाण्डव-सेना भयभीत भागती हुई जिधर भी जाती थी ;
अपने पीछे दौडते हुए वह आज कर्ण को पाती थी .
रह गयी किसी के भी मन में जय की किञ्चित भी नहीं आस ,
आखिर, बोले भगवान् सभी को देख व्याकुल हताश .
''अर्जुन ! देखो, किस तरह कर्ण सारी सेना पर टूट रहा ,
किस तरह पाण्डवों का पौरुष होकर अशङक वह लूट रहा .
देखो जिस तरफ़, उधर उसके ही बाण दिखायी पडते हैं ,
बस, जिधर सुनो, केवल उसके हुङकार सुनायी पडते हैं .''
''कैसी करालता ! क्या लाघव ! कितना पौरुष ! कैसा प्रहार !
किस गौरव से यह वीर द्विरद कर रहा समर-वन में विहार !
व्यूहों पर व्यूह फटे जाते, संग्राम उजडता जाता है ,
ऐसी तो नहीं कमल वन में भी कुञ्जर धूम मचाता है .''
''इस पुरुष-सिंह का समर देख मेरे तो हुए निहाल नयन ,
कुछ बुरा न मानो, कहता हूं , मैं आज एक चिर-गूढ वचन .
कर्ण के साथ तेरा बल भी मैं खूब जानता आया हूं ,
मन-ही-मन तुझसे बडा वीर, पर इसे मानता आया हूं .''
''औ' देख चरम वीरता आज तो यही सोचता हूं मन में ,
है भी कोई, जो जीत सके, इस अतुल धनुर्धर को रण में ?
मैं चक्र सुदर्शन धरूं और गाण्डीव अगर तू तानेगा ,
तब भी, शायद ही, आज कर्ण आतङक हमारा मानेगा .''
''यह नहीं देह का बल केवल, अन्तर्नभ के भी विवस्वान् ,
हैं किये हुए मिलकर इसको इतना प्रचण्ड जाज्वल्यमान .
सामान्य पुरुष यह नहीं, वीर यह तपोनिष्ठ व्रतधारी है ;
मृत्तिका-पुञ्ज यह मनुज ज्योतियों के जग का अधिकारी है .''
''कर रहा काल-सा घोर समर, जय का अनन्त विश्वास लिये ,
है घूम रहा निर्भय, जानें, भीतर क्या दिव्य प्रकाश लिये !
जब भी देखो, तब आंख गडी सामने किसी अरिजन पर है ,
भूल ही गया है, एक शीश इसके अपने भी तन पर है .''
''अर्जुन ! तुम भी अपने समस्त विक्रम-बल का आह्वान करो ,
अर्जित असंख्य विद्याओं का हो सजग हृदय में ध्यान करो .
जो भी हो तुममें तेज, चरम पर उसे खींच लाना होगा ,
तैयार रहो, कुछ चमत्कार तुमको भी दिखलाना होगा .''
दिनमणि पश्चिम की ओर ढले देखते हुए संग्राम घोर ,
गरजा सहसा राधेय, न जाने, किस प्रचण्ड सुख में विभोर .
''सामने प्रकट हो प्रलय ! फाड़ तुझको मैं राह बनाऊंगा ,
जाना है तो तेरे भीतर संहार मचाता जाऊंगा .''
''क्या धमकाता है काल ? अरे, आ जा, मुट्ठी में बन्द करूं .
छुट्टी पाऊं, तुझको समाप्त कर दूं, निज को स्वच्छन्द करूं .
ओ शल्य ! हयों को तेज करो, ले चलो उड़ाकर शीघ्र वहां ,
गोविन्द-पार्थ के साथ डटे हों चुनकर सारे वीर जहां .''
''हो शास्त्रों का झन-झन-निनाद, दन्तावल हों चिंग्घार रहे ,
रण को कराल घोषित करके हों समरशूर हुङकार रहे ,
कटते हों अगणित रुण्ड-मुण्ड, उठता होर आर्त्तनाद क्षण-क्षण ,
झनझना रही हों तलवारें; उडते हों तिग्म विशिख सन-सन .''
''संहार देह धर खड़ा जहां अपनी पैंजनी बजाता हो ,
भीषण गर्जन में जहां रोर ताण्डव का डूबा जाता हो .
ले चलो, जहां फट रहा व्योम, मच रहा जहां पर घमासान ,
साकार ध्वंस के बीच पैठ छोड़ना मुझे है आज प्राण .''
समझ में शल्य की कुछ भी न आया ,
हयों को जोर से उसने भगाया .
निकट भगवान् के रथ आन पहुंचा ,
अगम, अज्ञात का पथ आन पहुंचा ?
अगम की राह, पर, सचमुच, अगम है ,
अनोखा ही नियति का कार्यक्रम है .
न जानें न्याय भी पहचानती है ,
कुटिलता ही कि केवल जानती है ?
रहा दीपित सदा शुभ धर्म जिसका ,
चमकता सूर्य-सा था कर्म जिसका ,
अबाधित दान का आधार था जो ,
धरित्री का अतुल श्रृङगार था जो ,
क्षुधा जागी उसी की हाय, भू को ,
कहें क्या मेदिनी मानव-प्रसू को ?
रुधिर के पङक में रथ को जकड़ क़र ,
गयी वह बैठ चक्के को पकड़ क़र .
लगाया जोर अश्वों ने न थोडा ,
नहीं लेकिन, मही ने चक्र छोडा .
वृथा साधन हुए जब सारथी के ,
कहा लाचार हो उसने रथी से .
''बडी राधेय ! अद्भुत बात है यह .
किसी दु:शक्ति का ही घात है यह .
जरा-सी कीच में स्यन्दन फंसा है ,
मगर, रथ-चक्र कुछ ऐसा धंसा है ;''
''निकाले से निकलता ही नहीं है ,
हमारा जोर चलता ही नहीं है ,
जरा तुम भी इसे झकझोर देखो ,
लगा अपनी भुजा का जोर देखो .''
हँसा राधेय कर कुछ याद मन में ,
कहा, ''हां सत्य ही, सारे भुवन में ,
विलक्षण बात मेरे ही लिए है ,
नियति का घात मेरे ही लिए है .
''मगर, है ठीक, किस्मत ही फंसे जब ,
धरा ही कर्ण का स्यन्दन ग्रसे जब ,
सिवा राधेय के पौरुष प्रबल से ,
निकाले कौन उसको बाहुबल से ?''
उछलकर कर्ण स्यन्दन से उतर कर ,
फंसे रथ-चक्र को भुज-बीच भर कर ,
लगा ऊपर उठाने जोर करके ,
कभी सीधा, कभी झकझोर करके .
मही डोली, सलिल-आगार डोला ,
भुजा के जोर से संसार डोला
न डोला, किन्तु, जो चक्का फंसा था ,
चला वह जा रहा नीचे धंसा था .
विपद में कर्ण को यों ग्रस्त पाकर ,
शरासनहीन, अस्त-व्यस्त पाकर ,
जगा कर पार्थ को भगवान् बोले _
''खडा है देखता क्या मौन, भोले ?''
''शरासन तान, बस अवसर यही है ,
घड़ी फ़िर और मिलने की नहीं है .
विशिख कोई गले के पार कर दे ,
अभी ही शत्रु का संहार कर दे .''
श्रवण कर विश्वगुरु की देशना यह ,
विजय के हेतु आतुर एषणा यह ,
सहम उट्ठा जरा कुछ पार्थ का मन ,
विनय में ही, मगर, बोला अकिञ्चन .
''नरोचित, किन्तु, क्या यह कर्म होगा ?
मलिन इससे नहीं क्या धर्म होगा ?''
हंसे केशव, ''वृथा हठ ठानता है .
अभी तू धर्म को क्या जानता है ?''
''कहूं जो, पाल उसको, धर्म है यह .
हनन कर शत्रु का, सत्कर्म है यह .
क्रिया को छोड़ चिन्तन में फंसेगा ,
उलट कर काल तुझको ही ग्रसेगा .''
भला क्यों पार्थ कालाहार होता ?
वृथा क्यों चिन्तना का भार ढोता ?
सभी दायित्व हरि पर डाल करके ,
मिली जो शिष्टि उसको पाल करके ,
लगा राधेय को शर मारने वह ,
विपद् में शत्रु को संहारने वह ,
शरों से बेधने तन को, बदन को ,
दिखाने वीरता नि:शस्त्र जन को .
विशिख सन्धान में अर्जुन निरत था ,
खड़ा राधेय नि:सम्बल, विरथ था ,
खड़े निर्वाक सब जन देखते थे ,
अनोखे धर्म का रण देखते थे .
नहीं जब पार्थ को देखा सुधरते ,
हृदय में धर्म का टुक ध्यान धरते .
समय के योग्य धीरज को संजोकर ,
कहा राधेय ने गम्भीर होकर .
''नरोचित धर्म से कुछ काम तो लो !
बहुत खेले, जरा विश्राम तो लो .
फंसे रथचक्र को जब तक निकालूं ,
धनुष धारण करूं, प्रहरण संभालूं ,''
''रुको तब तक, चलाना बाण फिर तुम ;
हरण करना, सको तो, प्राण फिर तुम .
नहीं अर्जुन ! शरण मैं मागंता हूं ,
समर्थित धर्म से रण मागंता हूं .''
''कलकिंत नाम मत अपना करो तुम ,
हृदय में ध्यान इसका भी धरो तुम .
विजय तन की घडी भर की दमक है ,
इसी संसार तक उसकी चमक है .''
''भुवन की जीत मिटती है भुवन में ,
उसे क्या खोजना गिर कर पतन में ?
शरण केवल उजागर धर्म होगा ,
सहारा अन्त में सत्कर्म होगा .''
उपस्थित देख यों न्यायार्थ अरि को ,
निहारा पार्थ ने हो खिन्न हरि को .
मगर, भगवान् किञ्चित भी न डोले ,
कुपित हो वज्र-सी यह वात बोले _
''प्रलापी ! ओ उजागर धर्म वाले !
बड़ी निष्ठा, बड़े सत्कर्म वाले !
मरा, अन्याय से अभिमन्यु जिस दिन ,
कहां पर सो रहा था धर्म उस दिन ?''
''हलाहल भीम को जिस दिन पड़ा था ,
कहां पर धर्म यह उस दिन धरा था ?
लगी थी आग जब लाक्षा-भवन में,
हंसा था धर्म ही तब क्या भुवन में ?''
''सभा में द्रौपदी की खींच लाके ,
सुयोधन की उसे दासी बता के ,
सुवामा-जाति को आदर दिया जो ,
बहुत सत्कार तुम सबने किया जो ,''
''नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था ,
उजागर, शीलभूषित धर्म ही था .
जुए में हारकर धन-धाम जिस दिन ,
हुए पाण्डव यती निष्काम जिस दिन ,''
''चले वनवास को तब धर्म था वह ,
शकुनियों का नहीं अपकर्म था वह .
अवधि कर पूर्ण जब, लेकिन, फिरे वे ,
असल में, धर्म से ही थे गिरे वे .''
''बडे पापी हुए जो ताज मांगा ,
किया अन्याय; अपना राज मांगा .
नहीं धर्मार्थ वे क्यों हारते हैं ,
अधी हैं, शत्रु को क्यों मारते हैं ?''
''हमीं धर्मार्थ क्या दहते रहेंगे ?
सभी कुछ मौन हो सहते रहेंगे ?
कि दगे धर्म को बल अन्य जन भी ?
तजेंगे क्रूरता-छल अन्य जन भी ?''
''न दी क्या यातना इन कौरवों ने ?
किया क्या-क्या न निर्घिन कौरवों ने ?
मगर, तेरे लिए सब धर्म ही था ,
दुहित निज मित्र का, सत्कर्म ही था .''
''किये का जब उपस्थित फल हुआ है ,
ग्रसित अभिशाप से सम्बल हुआ है ,
चला है खोजने तू धर्म रण में ,
मृषा किल्विष बताने अन्य जन में .''
''शिथिल कर पार्थ ! किंचित् भी न मन तू .
न धर्माधर्म में पड भीरु बन तू .
कडा कर वक्ष को, शर मार इसको ,
चढा शायक तुरत संहार इसको .''
हंसा राधेय, ''हां अब देर भी क्या ?
सुशोभन कर्म में अवसेर भी क्या ?
कृपा कुछ और दिखलाते नहीं क्यों ?
सुदर्शन ही उठाते हैं नहीं क्यों ?''
''कहा जो आपने, सब कुछ सही है ,
मगर, अपनी मुझे चिन्ता नहीं है ?
सुयोधन-हेतु ही पछता रहा हूं ,
बिना विजयी बनाये जा रहा हूं .''
''वृथा है पूछना किसने किया क्या ,
जगत् के धर्म को सम्बल दिया क्या !
सुयोधन था खडा कल तक जहां पर ,
न हैं क्या आज पाण्डव ही वहां पर ?''
''उन्होंने कौन-सा अपधर्म छोडा ?
किये से कौन कुत्सित कर्म छोडा ?
गिनाऊं क्या ? स्वयं सब जानते हैं ,
जगद्गुरु आपको हम मानते है .''
''शिखण्डी को बनाकर ढाल अर्जुन ,
हुआ गांगेय का जो काल अर्जुन ,
नहीं वह और कुछ, सत्कर्म ही था .
हरे ! कह दीजिये, वह धर्म ही था .''
''हुआ सात्यकि बली का त्राण जैसे ,
गये भूरिश्रवा के प्राण जैसे ,
नहीं वह कृत्य नरता से रहित था ,
पतन वह पाण्डवों का धर्म-हित था .''
''कथा अभिमन्यु की तो बोलते हैं ,
नहीं पर, भेद यह क्यों खोलते हैं ?
कुटिल षडयन्त्र से रण से विरत कर ,
महाभट द्रोण को छल से निहत कर ,''
''पतन पर दूर पाण्डव जा चुके है ,
चतुर्गुण मोल बलि का पा चुके हैं .
रहा क्या पुण्य अब भी तोलने को ?
उठा मस्तक, गरज कर बोलने को ?''
''वृथा है पूछना, था दोष किसका ?
खुला पहले गरल का कोष किसका ?
जहर अब तो सभी का खुल रहा है ,
हलाहल से हलाहल धुल रहा है .''
'जहर की कीच में ही आ गये जब ,
कलुष बन कर कलुष पर छा गये जब ,
दिखाना दोष फिर क्या अन्य जन में ,
अहं से फूलना क्या व्यर्थ मन में ?''
''सुयोधन को मिले जो फल किये का ,
कुटिल परिणाम द्रोहानल पिये का ,
मगर, पाण्डव जहां अब चल रहे हैं ,
विकट जिस वासना में जल रहे हैं ,''
''अभी पातक बहुत करवायेगी वह ,
उन्हें जानें कहां ले जायेगी वह .
न जानें, वे इसी विष से जलेंगे ,
कहीं या बर्फ में जाकर गलेंगे .''
''सुयोधन पूत या अपवित्र ही था ,
प्रतापी वीर मेरा मित्र ही था .
किया मैंने वही, सत्कर्म था जो ,
निभाया मित्रता का धर्म था जो .''
''नहीं किञ्चित् मलिन अन्तर्गगन है ,
कनक-सा ही हमारा स्वच्छ मन है ;
अभी भी शुभ्र उर की चेतना है ,
अगर है, तो यही बस, वेदना है .''
''वधूजन को नहीं रक्षण दिया क्यों ?
समर्थन पाप का उस दिन किया क्यों ?
न कोई योग्य निष्कृति पा रहा हूं ,
लिये यह दाह मन में जा रहा हूं .''
''विजय दिलवाइये केशव! स्वजन को ,
शिथिल, सचमुच, नहीं कर पार्थ! मन को .
अभय हो बेधता जा अंग अरि का ,
द्विधा क्या, प्राप्त है जब संग हरि का !''
''मही! लै सोंपता हूं आप रथ मैं ,
गगन में खोजता हूं अन्य पथ मैं .
भले ही लील ले इस काठ को तू ,
न पा सकती पुरुष विभ्राट को तू .''
''महानिर्वाण का क्षण आ रहा है, नया आलोक-स्यन्दन आ रहा है ;
तपस्या से बने हैं यन्त्र जिसके, कसे जप-याग से हैं तन्त्र जिसके ;
जुते हैं कीर्त्तियों के वाजि जिसमें, चमकती है किरण की राजि जिसमें ;
हमारा पुण्य जिसमें झूलता है, विभा के पद्म-सा जो फूलता है .''
''रचा मैनें जिसे निज पुण्य-बल से, दया से, दान से, निष्ठा अचल से ;
हमारे प्राण-सा ही पूत है जो, हुआ सद्धर्म से उद्भूत है जो ;
न तत्त्वों की तनिक परवाह जिसको, सुगम सर्वत्र ही है राह जिसको ;
गगन में जो अभय हो घूमता है, विभा की ऊर्मियों पर झूमता है .''
''अहा! आलोक-स्यन्दन आन पहंुचा ,
हमारे पुण्य का क्षण आन पहुंचा .
विभाओ सूर्य की! जय-गान गाओ ,
मिलाओ, तार किरणों के मिलाओ .''
''प्रभा-मण्डल! भरो झंकार, बोलो !
जगत् की ज्योतियो! निज द्वार खोलो !
तपस्या रोचिभूषित ला रहा हंू ,
चढा मै रश्मि-रथ पर आ रहा हंू .''
गगन में बध्द कर दीपित नयन को ,
किये था कर्ण जब सूर्यस्थ मन को ,
लगा शर एक ग्रीवा में संभल के ,
उड़ी ऊपर प्रभा तन से निकल के !
गिरा मस्तक मही पर छिन्न होकर !
तपस्या-धाम तन से भिन्न होकर.
छिटक कर जो उडा आलोक तन से ,
हुआ एकात्म वह मिलकर तपन से !
उठी कौन्तेय की जयकार रण में ,
मचा घनघोर हाहाकार रण में .
सुयोधन बालकों-सा रो रहा था !
खुशी से भीम पागल हो रहा था !
फिरे आकाश से सुरयान सारे ,
नतानन देवता नभ से सिधारे .
छिपे आदित्य होकर आर्त्त घन में ,
उदासी छा गयी सारे भुवन में .
युधिष्ठिर प्राप्त कर निस्तार भय से ,
प्रफुल्लित हो, बहुत दुर्लभ विजय से ,
दृगों में मोद के मोती सजाये ,
बडे ही व्यग्र हरि के पास आये .
कहा, ''केशव! बडा था त्रास मुझको ,
नहीं था यह कभी विश्वास मुझको ,
कि अर्जुन यह विपद भी हर सकेगा ,
किसी दिन कर्ण रण में मर सकेगा .''
''इसी के त्रास में अन्तर पगा था ,
हमें वनवास में भी भय लगा था .
कभी निश्चिन्त मैं क्या हो सका था ?
न तेरह वर्ष सुख से सो सका था .''
''बली योध्दा बडा विकराल था वह !
हरे! कैसा भयानक काल था वह ?
मुषल विष में बुझे थे, बाण क्या थे !
शिला निर्मोघ ही थी, प्राण क्या थे !''
''मिला कैसे समय निर्भीत है यह ?
हुई सौभाग्य से ही जीत है यह ?
नहीं यदि आज ही वह काल सोता ,
न जानें, क्या समर का हाल होता ?''
उदासी में भरे भगवान् बोले ,
''न भूलें आप केवल जीत को ले .
नहीं पुरुषार्थ केवल जीत में है .
विभा का सार शील पुनीत में है .''
''विजय, क्या जानिये, बसती कहां है ?
विभा उसकी अजय हंसती कहां है ?
भरी वह जीत के हुङकार में है ,
छिपी अथवा लहू की धार में है ?''
''हुआ जानें नहीं, क्या आज रण में ?
मिला किसको विजय का ताज रण में ?
किया क्या प्राप्त? हम सबने दिया क्या ?
चुकाया मोल क्या? सौदा लिया क्या ?''
''समस्या शील की, सचमुच गहन है .
समझ पाता नहीं कुछ क्लान्त मन है .
न हो निश्चिन्त कुछ अवधानता है .
जिसे तजता, उसी को मानता है .''
''मगर, जो हो, मनुज सुवरिष्ठ था वह .
धनुर्धर ही नहीं, धर्मिष्ठ था वह .
तपस्वी, सत्यवादी था, व्रती था ,
बडा ब्रह्मण्य था, मन से यती था .''
''हृदय का निष्कपट, पावन क्रिया का ,
दलित-तारक, समुध्दारक त्रिया का .
बडा बेजोड दानी था, सदय था ,
युधिष्ठिर! कर्ण का अद्भुत हृदय था .''
''किया किसका नहीं कल्याण उसने ?
दिये क्या-क्या न छिपकर दान उसने ?
जगत् के हेतु ही सर्वस्व खोकर ,
मरा वह आज रण में नि:स्व होकर .''
''उगी थी ज्योति जग को तारने को .
न जनमा था पुरुष वह हारने को .
मगर, सब कुछ लुटा कर दान के हित ,
सुयश के हेतु, नर-कल्याण के हित .''
''दया कर शत्रु को भी त्राण देकर ,
खुशी से मित्रता पर प्र्राण देकर ,
गया है कर्ण भू को दीन करके ,
मनुज-कुल को बहुत बलहीन करके .''
''युधिष्ठिर! भूलिये, विकराल था वह ,
विपक्षी था, हमारा काल था वह .
अहा! वह शील में कितना विनत था ?
दया में, धर्म में कैसा निरत था !''
''समझ कर द्रोण मन में भक्ति भरिये ,
पितामह की तरह सम्मान करिये .
मनुजता का नया नेता उठा है .
जगत् से ज्योति का जेता उठा है !''
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "पंचम सर्ग "
आ गया काल विकराल शान्ति के क्षय का,
निर्दिष्ट लग्न धरती पर खंड-प्रलय का.
हो चुकी पूर्ण योजना नियती की सारी,
कल ही होगा आरम्भ समर अति भारी.
कल जैसे ही पहली मरीचि फूटेगी,
रण में शर पर चढ़ महामृत्यु छूटेगी.
संहार मचेगा, तिमिर घोर छायेगा,
सारा समाज दृगवंचित हो जायेगा.
जन-जन स्वजनों के लिए कुटिल यम होगा,
परिजन, परिजन के हित कृतान्त-सम होगा.
कल से भाई, भाई के प्राण हरेंगे,
नर ही नर के शोणित में स्नान करेंगे.
सुध-बुध खो, बैठी हुई समर-चिंतन में,
कुंती व्याकुल हो उठी सोच कुछ मन में.
'हे राम! नहीं क्या यह संयोग हटेगा?
सचमुच ही क्या कुंती का हृदय फटेगा?
'एक ही गोद के लाल, कोख के भाई,
सत्य ही, लड़ेंगे हो, दो ओर लड़ाई?
सत्य ही, कर्ण अनुजों के प्राण हरेगा,
अथवा, अर्जुन के हाथों स्वयं मरेगा?
दो में जिसका उर फटे, फटूँगी मैं ही,
जिसकी भी गर्दन कटे, कटूँगी मैं ही,
पार्थ को कर्ण, या पार्थ कर्ण को मारे,
बरसेंगें किस पर मुझे छोड़ अंगारे?
चींताकुल उलझी हुई व्यथा में, मन से,
बाहर आई कुंती, कढ़ विदुर भवन से.
सामने तपन को देख, तनिक घबरा कर,
सितकेशी, संभ्रममयी चली सकुचा कर.
उड़ती वितर्क-धागे पर, चंग-सरीखी,
सुधियों की सहती चोट प्राण पर तीखी.
आशा-अभिलाषा-भारी, डरी, भरमायी,
कुंती ज्यों-त्यों जाह्नवी-तीर पर आयी.
दिनमणि पश्चिम की ओर क्षितिज के ऊपर,
थे घट उंड़ेलते खड़े कनक के भू पर.
लालिमा बहा अग-अग को नहलाते थे,
खुद भी लज्जा से लाल हुए जाते थे.
राधेय सांध्य-पूजन में ध्यान लगाये,
था खड़ा विमल जल में, युग बाहु उठाये.
तन में रवि का अप्रतिम तेज जगता था,
दीपक ललाट अपरार्क-सदृश लगता था.
मानो, युग-स्वर्णिम-शिखर-मूल में आकर,
हो बैठ गया सचमुच ही, सिमट विभाकर.
अथवा मस्तक पर अरुण देवता को ले,
हो खड़ा तीर पर गरुड़ पंख निज खोले.
या दो अर्चियाँ विशाल पुनीत अनल की,
हों सजा रही आरती विभा-मण्डल की,
अथवा अगाध कंचन में कहीं नहा कर,
मैनाक-शैल हो खड़ा बाहु फैला कर.
सुत की शोभा को देख मोद में फूली,
कुंती क्षण-भर को व्यथा-वेदना भूली.
भर कर ममता-पय से निष्पलक नयन को,
वह खड़ी सींचती रही पुत्र के तन को
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "चतुर्थ सर्ग "
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "चतुर्थ सर्ग "
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,
उतनी बढ़ती ज्योति, स्नेह जितना अनल्प जलता है,
और दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,
अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं.
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है.
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं,
गिरने से उसको सँभाल, क्यों रोक नही लेते हैं?
ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है.
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है.
देते तरु इसलिए की मत रेशों मे कीट समाए,
रहें डालियां स्वस्थ और फिर नये-नये फल आएं.
सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो.
आत्मदान के साथ जगज्जीवन का ऋजु नाता है,
जो देता जितना बदले मे उतना ही पता है
दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,
रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,
व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,
पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं.
जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,
वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला.
व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,
जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को.
दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कुतर कर,
हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर.
ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,
अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर.
सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,
सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की.
हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,
अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला.
मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,
उत्तर मे सौ बार चीखकर बोटी-बोटी बोली.
दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है.
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं
वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,
पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी.
रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,
मुँह-माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था
पहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका,
कर्ण नाम पड गया दान की अतुलनीय महिमा का.
श्रद्धा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,
अपना भाग्य समझ भजते थे उसे भाग्यहत प्राणी.
तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,
किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से.
व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,
कठिन मूल्य माँगने सामने भाग्य देह धर आया.
एक दिवास जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,
कर्ण जाह्नवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को.
कटि तक डूबा हुआ सलिल में किसी ध्यान मे रत-सा,
अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा.
हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,
हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को.
किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,
कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था.
विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,
धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे.
पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,
इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला.
कहा कर्ण ने, "कौन उधर है? बंधु सामने आओ,
मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूनाओ.
अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,
यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है.
'माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?
अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?
मेघ भले लौटे उदास हो किसी रोज सागर से,
याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से.
'पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना?
आओ, उऋण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,
उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर.
'अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है?
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है.
कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,
तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?
'दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की गदगद वाणी,
नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,
हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधरों का,
पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नरों का.
'इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?
पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरूं मैं?
मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,
मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ
गिरा गहन सुन चकित और मन-ही-मन-कुछ भरमाया,
लता-ओट से एक विप्र सामने कर्ण के आया,
कहा कि 'जय हो, हमने भी है सुनी सुकीर्ति कहानी,
नहीं आज कोई त्रिलोक में कहीं आप-सा दानी.
'नहीं फिराते एक बार जो कुछ मुख से कहते हैं,
प्रण पालन के लिए आप बहु भाँति कष्ट सहते हैं.
आश्वासन से ही अभीत हो सुख विपन्न पाता है,
कर्ण-वचन सर्वत्र कार्यवाचक माना जाता है.
'लोग दिव्य शत-शत प्रमाण निष्ठा के बतलाते हैं,
शिवि-दधिचि-प्रह्लाद कोटि में आप गिने जाते हैं.
सबका है विश्वास, मृत्यु से आप न डर सकते हैं,
हँस कर प्रण के लिए प्राण न्योछावर कर सकते हैं.
'ऐसा है तो मनुज-लोक, निश्चय, आदर पाएगा.
स्वर्ग किसी दिन भीख माँगने मिट्टी पर आएगा.
किंतु भाग्य है बली, कौन, किससे, कितना पाता है,
यह लेखा नर के ललाट में ही देखा जाता है.
'क्षुद्र पात्र हो मग्न कूप में जितना जल लेता है,
उससे अधिक वारि सागर भी उसे नहीं देता है.
अतः, व्यर्थ है देख बड़ों को बड़ी वास्तु की आशा,
किस्मत भी चाहिए, नहीं केवल ऊँची अभिलाषा.'
कहा कर्ण ने, 'वृथा भाग्य से आप डरे जाते हैं,
जो है सम्मुख खड़ा, उसे पहचान नहीं पाते हैं.
विधि ने क्या था लिखा भाग्य में, खूब जानता हूँ मैं,
बाहों को, पर, कहीं भाग्य से बली मानता हूँ मैं.
'महाराज, उद्यम से विधि का अंक उलट जाता है,
किस्मत का पाशा पौरुष से हार पलट जाता है.
और उच्च अभिलाषाएँ तो मनुज मात्र का बल हैं,
जगा-जगा कर हमें वही तो रखती निज चंचल हैं.
'आगे जिसकी नजर नहीं, वह भला कहाँ जाएगा?
अधिक नहीं चाहता, पुरुष वह कितना धन पाएगा?
अच्छा, अब उपचार छोड़, बोलिए, आप क्या लेंगे,
सत्य मानिये, जो माँगेंगें आप, वही हम देंगे.
'मही डोलती और डोलता नभ मे देव-निलय भी,
कभी-कभी डोलता समर में किंचित वीर-हृदय भी.
डोले मूल अचल पर्वत का, या डोले ध्रुवतारा,
सब डोलें पर नही डोल सकता है वचन हमारा.'
भली-भाँति कस कर दाता को, बोला नीच भिखारी,
'धन्य-धन्य, राधेय! दान के अति अमोघ व्रत धारी.
ऐसा है औदार्य, तभी तो कहता हर याचक है,
महाराज का वचन सदा, सर्वत्र क्रियावाचक है.
'मैं सब कुछ पा गया प्राप्त कर वचन आपके मुख से,
अब तो मैं कुछ लिए बिना भी जा सकता हूँ सुख से.
क्योंकि माँगना है जो कुछ उसको कहते डरता हूँ,
और साथ ही, एक द्विधा का भी अनुभव करता हूँ.
'कहीं आप दे सके नहीं, जो कुछ मैं धन माँगूंगा,
मैं तो भला किसी विधि अपनी अभिलाषा त्यागूंगा.
किंतु आपकी कीर्ति-चाँदनी फीकी हो जाएगी,
निष्कलंक विधु कहाँ दूसरा फिर वसुधा पाएगी.
'है सुकर्म, क्या संकट मे डालना मनस्वी नर को?
प्रण से डिगा आपको दूँगा क्या उत्तर जग भर को?
सब कोसेंगें मुझे कि मैने पुण्य मही का लूटा,
मेरे ही कारण अभंग प्रण महाराज का टूटा.
'अतः विदा दें मुझे, खुशी से मैं वापस जाता हूँ.'
बोल उठा राधेय, 'आपको मैं अद्भुत पाता हूँ.
सुर हैं, या कि यक्ष हैं अथवा हरि के मायाचर हैं,
समझ नहीं पाता कि आप नर हैं या योनि इतर हैं.
'भला कौन-सी वस्तु आप मुझ नश्वर से माँगेंगे,
जिसे नहीं पाकर, निराश हो, अभिलाषा त्यागेंगे?
गो, धरती, धन, धाम वस्तु जितनी चाहे दिलवा दूँ,
इच्छा हो तो शीश काट कर पद पर यहीं चढा दूँ.
'या यदि साथ लिया चाहें जीवित, सदेह मुझको ही,
तो भी वचन तोड़कर हूँगा नहीं विप्र का द्रोही.
चलिए साथ चलूँगा मैं साकल्य आप का ढोते,
सारी आयु बिता दूँगा चरणों को धोते-धोते.
'वचन माँग कर नहीं माँगना दान बड़ा अद्भुत है,
कौन वस्तु है, जिसे न दे सकता राधा का सुत है?
विप्रदेव! मॅंगाइयै छोड़ संकोच वस्तु मनचाही,
मरूं अयश कि मृत्यु, करूँ यदि एक बार भी 'नाहीं'
सहम गया सुन शपथ कर्ण की, हृदय विप्र का डोला,
नयन झुकाए हुए भिक्षु साहस समेट कर बोला,
'धन की लेकर भीख नहीं मैं घर भरने आया हूँ,
और नहीं नृप को अपना सेवक करने आया हूँ.
'यह कुछ मुझको नहीं चाहिए, देव धर्म को बल दें,
देना हो तो मुझे कृपा कर कवच और कुंडल दें.'
'कवच और कुंडल!' विद्युत छू गयी कर्ण के तन को;
पर, कुछ सोच रहस्य, कहा उसने गंभीर कर मन को.
'समझा, तो यह और न कोई, आप, स्वयं सुरपति हैं,
देने को आये प्रसन्न हो तप को नयी प्रगती हैं.
धन्य हमारा सुयश आपको खींच मही पर लाया,
स्वर्ग भीख माँगने आज, सच ही, मिट्टी पर आया.
'क्षमा कीजिए, इस रहस्य को तुरत न जान सका मैं,
छिप कर आये आप, नहीं इससे पहचान सका मैं.
दीन विप्र ही समझ कहा-धन, धाम, धारा लेने को,
था क्या मेरे पास, अन्यथा, सुरपति को देने को?
'केवल गन्ध जिन्हे प्रिय, उनको स्थूल मनुज क्या देगा?
और व्योमवासी मिट्टी से दान भला क्या लेगा?
फिर भी, देवराज भिक्षुक बनकर यदि हाथ पसारे,
जो भी हो, पर इस सुयोग को, हम क्यों अशुभ विचरें?
'अतः आपने जो माँगा है दान वही मैं दूँगा,
शिवि-दधिचि की पंक्ति छोड़कर जग में अयश न लूँगा.
पर कहता हूँ, मुझे बना निस्त्राण छोड़ते हैं क्यों?
कवच और कुंडल ले करके प्राण छोड़ते हैं क्यों?
'यह शायद, इसलिए कि अर्जुन जिए, आप सुख लूटे,
व्यर्थ न उसके शर अमोघ मुझसे टकराकर टूटे.
उधर करें बहु भाँति पार्थ कि स्वयं कृष्ण रखवाली,
और इधर मैं लडू लिये यह देह कवच से खाली.
'तनिक सोचिये, वीरों का यह योग्य समर क्या होगा?
इस प्रकार से मुझे मार कर पार्थ अमर क्या होगा?
एक बाज का पंख तोड़ कर करना अभय अपर को,
सुर को शोभे भले, नीति यह नहीं शोभती नर को.
'यह तो निहत शरभ पर चढ़ आखेटक पद पाना है,
जहर पीला मृगपति को उस पर पौरुष दिखलाना है.
यह तो साफ समर से होकर भीत विमुख होना है,
जय निश्चित हो जाय, तभी रिपु के सम्मुख होना है.
'देवराज! हम जिसे जीत सकते न बाहु के बल से,
क्या है उचित उसे मारें हम न्याय छोड़कर छल से?
हार-जीत क्या चीज? वीरता की पहचान समर है,
सच्चाई पर कभी हार कर भी न हारता नर है.
'और पार्थ यदि बिना लड़े ही जय के लिये विकल है,
तो कहता हूँ, इस जय का भी एक उपाय सरल है.
कहिए उसे, मोम की मेरी एक मूर्ति बनवाए,
और काट कर उसे, जगत मे कर्णजयी कहलाए.
'जीत सकेगा मुझे नहीं वह और किसी विधि रण में,
कर्ण-विजय की आश तड़प कर रह जायेगी मन में.
जीते जूझ समर वीरों ने सदा बाहु के बल से,
मुझे छोड़ रक्षित जनमा था कौन कवच-कुंडल में?
'मैं ही था अपवाद, आज वह भी विभेद हरता हूँ,
कवच छोड़ अपना शरीर सबके समान करता हूँ.
अच्छा किया कि आप मुझे समतल पर लाने आये,
हर तनुत्र दैवीय; मनुज सामान्य बनाने आये.
'अब ना कहेगा जगत, कर्ण को ईश्वरीय भी बल था,
जीता वह इसलिए कि उसके पास कवच-कुंडल था.
महाराज! किस्मत ने मेरी की न कौन अवहेला?
किस आपत्ति-गर्त में उसने मुझको नही धकेला?
'जनमा जाने कहाँ, पला, पद-दलित सूत के कुल में,
परिभव सहता रहा विफल प्रोत्साहन हित व्याकुल मैं,
द्रोणदेव से हो निराश वन में भृगुपति तक धाया
बड़ी भक्ति कि पर, बदले में शाप भयानक पाया.
'और दान जिसके कारण ही हुआ ख्यात मैं जाग में,
आया है बन विघ्न सामने आज विजय के मग मे.
ब्रह्मा के हित उचित मुझे क्या इस प्रकार छलना था?
हवन डालते हुए यज्ञा मे मुझ को ही जलना था?
'सबको मिली स्नेह की छाया, नयी-नयी सुविधाएँ,
नियति भेजती रही सदा, पर, मेरे हित विपदाएँ.
मन-ही-मन सोचता रहा हूँ, यह रहस्य भी क्या है?
खोज खोज घेरती मुझी को जाने क्यों विपदा है?
'और कहें यदि पूर्व जन्म के पापों का यह फल है.
तो फिर विधि ने दिया मुझे क्यों कवच और कुंडल है?
समझ नहीं पड़ती विरंचि कि बड़ी जटिल है माया,
सब-कुछ पाकर भी मैने यह भाग्य-दोष क्यों पाया?
'जिससे मिलता नहीं सिद्ध फल मुझे किसी भी व्रत का,
उल्टा हो जाता प्रभाव मुझपर आ धर्म सुगत का.
गंगा में ले जन्म, वारि गंगा का पी न सका मैं,
किये सदा सत्कर्म, छोड़ चिंता पर, जी न सका मैं.
'जाने क्या मेरी रचना में था उद्देश्य प्रकृति का?
मुझे बना आगार शूरता का, करुणा का, धृति का,
देवोपम गुण सभी दान कर, जाने क्या करने को,
दिया भेज भू पर केवल बाधाओं से लड़ने को!
'फिर कहता हूँ, नहीं व्यर्थ राधेय यहाँ आया है,
एक नया संदेश विश्व के हित वह भी लाया है.
स्यात, उसे भी नया पाठ मनुजों को सिखलाना है,
जीवन-जय के लिये कहीं कुछ करतब दिखलाना है.
'वह करतब है यह कि शूर जो चाहे कर सकता है,
नियति-भाल पर पुरुष पाँव निज बल से धर सकता है.
वह करतब है यह कि शक्ति बसती न वंश या कुल में,
बसती है वह सदा वीर पुरुषों के वक्ष पृथुल में.
'वह करतब है यह कि विश्व ही चाहे रिपु हो जाये,
दगा धर्म दे और पुण्य चाहे ज्वाला बरसाये.
पर, मनुष्य तब भी न कभी सत्पथ से टल सकता है,
बल से अंधड़ को धकेल वह आगे चल सकता है.
'वह करतब है यह कि युद्ध मे मारो और मरो तुम,
पर कुपंथ में कभी जीत के लिये न पाँव धरो तुम.
वह करतब है यह कि सत्य-पथ पर चाहे कट जाओ,
विजय-तिलक के लिए करों मे कालिख पर, न लगाओ.
'देवराज! छल, छद्म, स्वार्थ, कुछ भी न साथ लाया हूँ,
मैं केवल आदर्श, एक उनका बनने आया हूँ,
जिन्हें नही अवलम्ब दूसरा, छोड़ बाहु के बल को,
धर्म छोड़ भजते न कभी जो किसी लोभ से छल को.
'मैं उनका आदर्श जिन्हें कुल का गौरव ताडेगा,
'नीचवंशजन्मा' कहकर जिनको जग धिक्कारेगा.
जो समाज के विषम वह्नि में चारों ओर जलेंगे,
पग-पग पर झेलते हुए बाधा निःसीम चलेंगे.
'मैं उनका आदर्श, कहीं जो व्यथा न खोल सकेंगे,
पूछेगा जग; किंतु, पिता का नाम न बोल सकेंगे.
जिनका निखिल विश्व में कोई कहीं न अपना होगा,
मन में लिए उमंग जिन्हें चिर-काल कलपना होगा.
'मैं उनका आदर्श, किंतु, जो तनिक न घबरायेंगे,
निज चरित्र-बल से समाज मे पद-विशिष्ट पायेंगे,
सिंहासन ही नहीं, स्वर्ग भी उन्हें देख नत होगा,
धर्म हेतु धन-धाम लुटा देना जिनका व्रत होगा.
'श्रम से नही विमुख होंगे, जो दुख से नहीं डरेंगे,
सुख क लिए पाप से जो नर कभी न सन्धि करेंगे,
कर्ण-धर्म होगा धरती पर बलि से नहीं मुकरना,
जीना जिस अप्रतिम तेज से, उसी शान से मारना
'भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,
बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का,
पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,
देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ.
'यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की,
कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की.
हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का,
अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का.
'जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है,
विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है.
मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,
पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं.
'देवराज! जीवन में आगे और कीर्ति क्या लूँगा?
इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा?
अब जाकर कहिए कि 'पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ,
अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ.'
'एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को,
दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को,
'उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है,
कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है.
'दो वीरों ने किंतु, लिया कर, आपस में निपटारा,
हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा.'
यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में,
कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में.
चकित, भीत चहचहा उठे कुंजो में विहग बिचारे,
दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे.
सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में,
'साधु-साधु!' की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में.
अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला,
देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला.
क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से.
ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से.
'पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,
तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है,
अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे,
नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे.
किन्तु, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में,
बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में.
झुका शीश आख़िर वे बोले, 'अब क्या बात कहूँ मैं?
करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?
'पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,
पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ,
देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर,
आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर.
'क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं,
माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं.
दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है,
पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है
'नहीं जानता था कि छद्म इतना संहारक होगा,
दान कवच-कुण्डल का - ऐसा हृदय-विदारक होगा.
मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा,
वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा.
'तेरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ,
कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ.
आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी,
दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी.
'तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ,
शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ.
घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा,
हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा
'हाँ, पड़ पुत्र-प्रेम में आया था छल ही करने को,
जान-बूझ कर कवच और कुण्डल तुझसे हरने को,
वह छल हुआ प्रसिद्ध किसे, क्या मुख अब दिखलाऊंगा,
आया था बन विप्र, चोर बनकर वापस जाऊँगा.
'वंदनीय तू कर्ण, देखकर तेज तिग्म अति तेरा,
काँप उठा था आते ही देवत्वपूर्ण मन मेरा.
किन्तु, अभी तो तुझे देख मन और डरा जाता है,
हृदय सिमटता हुआ आप-ही-आप मरा जाता है.
'दीख रहा तू मुझे ज्योति के उज्ज्वल शैल अचल-सा,
कोटि-कोटि जन्मों के संचित महपुण्य के फल-सा.
त्रिभुवन में जिन अमित योगियों का प्रकाश जगता है,
उनके पूंजीभूत रूप-सा तू मुझको लगता है.
'खड़े दीखते जगन्नियता पीछे तुझे गगन में,
बड़े प्रेम से लिए तुझे ज्योतिर्मय आलिंगन में.
दान, धर्म, अगणित व्रत-साधन, योग, यज्ञ, तप तेरे,
सब प्रकाश बन खड़े हुए हैं तुझे चतुर्दिक घेरे.
'मही मग्न हो तुझे अंक में लेकर इठलाती है,
मस्तक सूंघ स्वत्व अपना यह कहकर जतलाती है.
'इसने मेरे अमित मलिन पुत्रों का दुख मेटा है,
सूर्यपुत्र यह नहीं, कर्ण मुझ दुखिया का बेटा है.'
'तू दानी, मैं कुटिल प्रवंचक, तू पवित्र, मैं पापी,
तू देकर भी सुखी और मैं लेकर भी परितापी.
तू पहुँचा है जहाँ कर्ण, देवत्व न जा सकता है,
इस महान पद को कोई मानव ही पा सकता है.
'देख न सकता अधिक और मैं कर्ण, रूप यह तेरा,
काट रहा है मुझे जागकर पाप भयानक मेरा.
तेरे इस पावन स्वरूप में जितना ही पगता हूँ,
उतना ही मैं और अधिक बर्बर-समान लगता हूँ.
'अतः कर्ण! कर कृपा यहाँ से मुझे तुरत जाने दो,
अपने इस दूर्द्धर्ष तेज से त्राण मुझे पाने दो.
मगर विदा देने के पहले एक कृपा यह कर दो,
मुझ निष्ठुर से भी कोई ले माँग सोच कर वर लो.
कहा कर्ण ने, 'धन्य हुआ मैं आज सभी कुछ देकर,
देवराज! अब क्या होगा वरदान नया कुछ लेकर?
बस, आशिष दीजिए, धर्म मे मेरा भाव अचल हो,
वही छत्र हो, वही मुकुट हो, वही कवच-कुण्डल हो.
देवराज बोले कि, 'कर्ण! यदि धर्म तुझे छोड़ेगा,
निज रक्षा के लिए नया सम्बन्ध कहाँ जोड़ेगा?
और धर्म को तू छोड़ेगा भला पुत्र! किस भय से?
अभी-अभी रक्खा जब इतना ऊपर उसे विजय से.
धर्म नहीं, मैने तुझसे से जो वस्तु हरण कर ली है,
छल से कर आघात तुझे जो निस्सहायता दी है.
उसे दूर या कम करने की है मुझको अभिलाषा,
पर, स्वेच्छा से नहीं पूजने देगा तू यह आशा.
'तू माँगें कुछ नहीं, किन्तु मुझको अवश्य देना है,
मन का कठिन बोझ थोड़ा-सा हल्का कर लेना है.
ले अमोघ यह अस्त्र, काल को भी यह खा सकता है,
इसका कोई वार किसी पर विफल न जा सकता है.
'एक बार ही मगर, काम तू इससे ले पायेगा,
फिर यह तुरत लौट कर मेरे पास चला जायेगा.
अतः वत्स! मत इसे चलाना कभी वृथा चंचल हो,
लेना काम तभी जब तुझको और न कोई बल हो.
'दानवीर! जय हो, महिमा का गान सभी जन गाये,
देव और नर, दोनों ही, तेरा चरित्र अपनाये.'
दे अमोघ शर-दान सिधारे देवराज अम्बर को,
व्रत का अंतिम मूल्य चुका कर गया कर्ण निज घर को
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "तृतीय सर्ग"
हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
- पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सदृश तप कर,
- वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति जब आती है,
- कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
- क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
- संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
- उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
- टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
- पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
- हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
- वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
- झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
- बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ?
- भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
- नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
- सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
- तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
- आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
- पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
- छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
- लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
- मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
- तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
- बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
- पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
- सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
- भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
'दो न्याय अगर तो आधा दो,
- पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
- रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
- आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
- जो था असाध्य, साधने चला।
जन नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
- अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
- भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
- यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
- मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
- भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
- मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
- मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
- नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
- शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
- शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
- गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
- यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
- पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
- मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
- साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
- हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
'बाँधने मुझे तो आया है,
- जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
- पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
'हित-वचन नहीं तूने माना,
- मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
- अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
- बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
- विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
'भाई पर भाई टूटेंगे,
- विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
- सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।'
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
- चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
- धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
भगवान सभा को छोड़ चले,
- करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
- आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर
रथ चला परस्पर बात चली,
- शम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,
- अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय समूह को मरना है
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
- विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,
- कुछ नहीं समझने वाला है
चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
- क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है,
- मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे?
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
- रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
- भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे
"चिंता है, मैं क्या और करूं?
- शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,
- हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
समराग्नि अभी तल सकती है
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
- तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,
- तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
"क्या अघटनीय घटना कराल?
- तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,
- कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने हो तत्पर
"माँ का सनेह पाया न कभी,
- सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,
- पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को
"पर कौन दोष इसमें तेरा?
- अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,
- है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनाएंगे
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
- बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
- तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,
- धर्माचिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
- सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
- आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,
- असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी
"रण अनायास रुक जायेगा,
- कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,
- कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
- साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,
- बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
- क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा "बड़ी यह माया है,
- जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
- उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
- निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
"सेवती मास दस तक जिसको,
- पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
- अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
- इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
- जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी
"पत्थर समान उसका हिय था,
- सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
- मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया
"माँ का पय भी न पीया मैंने,
- उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
- सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
- राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
- कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था,
- अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
- माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी
"पा पाँच तनय फूली फूली,
- दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
- मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
- सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
- अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडोँ को गले लगाती है?
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,
- तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
- वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
- मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
- मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
- सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
- जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था
"उस समय सुअंक लगा कर के,
- अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
- ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
- सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,
- किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?
"अपना विकास अवरुद्ध देख,
- सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
- आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
- राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
- देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है
"राजा रंक से बना कर के,
- यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,
- सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
- जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
- यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
"सच है मेरी है आस उसे,
- मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
- ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया,
- सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
- घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
"कुन्ती का मैं भी एक तनय,
- जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
- मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
- अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
- अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा,
- सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
- मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
"जो आज आप कह रहे आर्य,
- कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
- हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,
- कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
- सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
- भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
- सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
"सिर पर कुलीनता का टीका,
- भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
- परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं
"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
- चलता ना छत्र पुरखों का धर.
अपना बल-तेज जगाता है,
- सम्मान जगत से पाता है.
सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं
"कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
- पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
- मैने हिम्मत से काम लिया
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे ढूँडने आया है.
"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
- अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
रण मे कुरूपति का विजय वरण,
- या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है.
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
- शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
- जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है.
"जिस नर की बाह गही मैने,
- जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
- कैसे कुठार चलने दूँगा,
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा,
"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
- कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
- आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.
"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
- उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
- ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?
"सम्राट बनेंगे धर्मराज,
- या पाएगा कुरूरज ताज,
लड़ना भर मेरा कम रहा,
- दुर्योधन का संग्राम रहा,
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है.
"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
- साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहीं आपने भी जाना?
- मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ.
"धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
- साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं.
भुजबल से कर संसार विजय,
- अगणित समृद्धियों का सन्चय,
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी ना सकी मन को.
"वैभव विलास की चाह नहीं,
- अपनी कोई परवाह नहीं,
बस यही चाहता हूँ केवल,
- दान की देव सरिता निर्मल,
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा.
"तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
- पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
- कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,
पर वह भी यहीं गवाना है,
कुछ साथ नही ले जाना है.
"मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
- कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को,
- लाते हैं रतन लुटाने को,
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं.
"प्रासादों के कनकाभ शिखर,
- होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
- कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.
"होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
- मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
- करते मनुष्य का तेज हरण.
नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.
"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
- नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
- आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.
"उड़ते जो झंझावतों में,
- पीते सो वारी प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
- विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.
"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज,
- सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.
दुर्योधन पर है विपद घोर,
- सकता न किसी विधि उसे छोड़,
रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको.
"संग्राम सिंधु लहराता है,
- सामने प्रलय घहराता है,
रह रह कर भुजा फड़कती है,
- बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
जीतूं की समर मे डूब मरूं.
"अब देर नही कीजै केशव,
- अवसेर नही कीजै केशव.
धनु की डोरी तन जाने दें,
- संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा.
"हाँ, एक विनय है मधुसूदन,
- मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
- जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
सिंहासन को ठुकराएँगे.
"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
- सारी संपत्ति मुझे देंगे.
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
- दुर्योधन को दे जाऊँगा.
पांडव वंचित रह जाएँगे,
दुख से न छूट वे पाएँगे.
"अच्छा अब चला प्रमाण आर्य,
- हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
रण मे ही अब दर्शन होंगे,
- शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें."
रथ से रधेय उतार आया,
- हरि के मन मे विस्मय छाया,
बोले कि "वीर शत बार धन्य,
- तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान."
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "द्वितीय सर्ग"
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "द्वितीय सर्ग"
शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।
आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।
हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,
धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।
बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।
अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टँगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लौह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।
श्रद्धा बढ़ती अजिन-दर्भ पर, परशु देख मन डरता है,
युद्ध-शिविर या तपोभूमि यह, समझ नहीं कुछ पड़ता है।
हवन-कुण्ड जिसका यह उसके ही क्या हैं ये धनुष-कुठार?
जिस मुनि की यह स्रुवा, उसी की कैसे हो सकती तलवार?
आयी है वीरता तपोवन में क्या पुण्य कमाने को?
या संन्यास साधना में है दैहिक शक्ति जगाने को?
मन ने तन का सिद्ध-यन्त्र अथवा शस्त्रों में पाया है?
या कि वीर कोई योगी से युक्ति सीखने आया है?
परशु और तप, ये दोनों वीरों के ही होते श्रृंगार,
क्लीव न तो तप ही करता है, न तो उठा सकता तलवार।
तप से मनुज दिव्य बनता है, षड् विकार से लड़ता है,
तन की समर-भूमि में लेकिन, काम खड्ग ही करता है।
किन्तु, कौन नर तपोनिष्ठ है यहाँ धनुष धरनेवाला?
एक साथ यज्ञाग्नि और असि की पूजा करनेवाला?
कहता है इतिहास, जगत् में हुआ एक ही नर ऐसा,
रण में कुटिल काल-सम क्रोधी तप में महासूर्य-जैसा!
मुख में वेद, पीठ पर तरकस, कर में कठिन कुठार विमल,
शाप और शर, दोनों ही थे, जिस महान् ऋषि के सम्बल।
यह कुटीर है उसी महामुनि परशुराम बलशाली का,
भृगु के परम पुनीत वंशधर, व्रती, वीर, प्रणपाली का।
हाँ-हाँ, वही, कर्ण की जाँघों पर अपना मस्तक धरकर,
सोये हैं तरुवर के नीचे, आश्रम से किञ्चित् हटकर।
पत्तों से छन-छन कर मीठी धूप माघ की आती है,
पड़ती मुनि की थकी देह पर और थकान मिटाती है।
कभी जटा पर हाथ फेरता, पीठ कभी सहलाता है,
चढें नहीं चीटियाँ बदन पर, पड़े नहीं तृण-पात कहीं,
कर्ण सजग है, उचट जाय गुरुवर की कच्ची नींद नहीं।
'वृद्ध देह, तप से कृश काया , उस पर आयुध-सञ्चालन,
हाथ, पड़ा श्रम-भार देव पर असमय यह मेरे कारण।
किन्तु, वृद्ध होने पर भी अंगों में है क्षमता कितनी,
और रात-दिन मुझ पर दिखलाने रहते ममता कितनी।
'कहते हैं , 'ओ वत्स! पुष्टिकर भोग न तू यदि खायेगा,
मेरे शिक्षण की कठोरता को कैसे सह पायेगा?
अनुगामी यदि बना कहीं तू खान-पान में भी मेरा,
सूख जायगा लहू, बचेगा हड्डी-भर ढाँचा तेरा।
'जरा सोच, कितनी कठोरता से मैं तुझे चलाता हूँ,
और नहीं तो एक पाव दिन भर में रक्त जलाता हूँ।
इसकी पूर्ति कहाँ से होगी, बना अगर तू संन्यासी,
इस प्रकार तो चबा जायगी तुझे भूख सत्यानाशी।
'पत्थर-सी हों मांस-पेशियाँ, लोहे-से भुज-दण्ड अभय,
नस-नस में हो लहर आग की, तभी जवानी पाती जय।
विप्र हुआ तो क्या, रक्खेगा रोक अभी से खाने पर?
कर लेना घनघोर तपस्या वय चतुर्थ के आने पर।
'ब्राह्मण का है धर्म त्याग, पर, क्या बालक भी त्यागी हों?
जन्म साथ , शिलोञ्छवृत्ति के ही क्या वे अनुरागी हों?
क्या विचित्र रचना समाज की? गिरा ज्ञान ब्राह्मण-घर में,
मोती बरसा वैश्य-वेश्म में, पड़ा खड्ग क्षत्रिय-कर में।
इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।
और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।
'सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।
औ' रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।
'रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,
और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।
'रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,
भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।
ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,
और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।
'अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,
ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।
कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।
'और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?
यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।
चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!
जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।
चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।
'जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,
ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।
अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,
'कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,
कनक नहीं , कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,
'तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।
थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,
भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्ग की भाषा को।
'रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर, निष्ठुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।
इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्ग धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।
'नित्य कहा करते हैं गुरुवर, 'खड्ग महाभयकारी है,
इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,
जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
सीमित जो रख सके खड्ग को, पास उसी को आने दो,
विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।
'जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
'जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।
'मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हृदय हुआ शीतल,
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।
'जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?
'किन्तु हाय! 'ब्राह्मणकुमार' सुन प्रण काँपने लगते हैं,
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?
'पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?
'नहीं पूछता है कोई तुम व्रती , वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
'मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुठ्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?
'कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।'
गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,
तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।
वज्रदंष्ट्र वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,
और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।
कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,
बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?
पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,
बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।
सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विह्वल छाती।
सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा,
गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा।
बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे,
आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे।
किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में,
परशुराम जग पड़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में।
कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर,
बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर।
परशुराम बोले- 'शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी,
सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।'
तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, 'नहीं अधिक पीड़ा मुझको,
महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?
मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे,
क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे।
'निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा,
छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा?
पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया,
लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।'
परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,
फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।
दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- 'कौन छली है तू?
ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।
सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,
बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।
'तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,
किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?
कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।
'तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,
परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।'
'क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!' गिरा कर्ण गुरु के पद पर,
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!
'सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ
छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,
आया था विद्या-संचय को, किन्तु , व्यर्थ बदनाम हुआ।
'बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का ,
तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।
पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।
'बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,
करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।
पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।
'छल से पाना मान जगत् में किल्विष है, मल ही तो है,
ऊँचा बना आपके आगे, सचमुच यह छल ही तो है।
पाता था सम्मान आज तक दानी, व्रती, बली होकर,
अब जाऊँगा कहाँ स्वयं गुरु के सामने छली होकर?
'करें भस्म ही मुझे देव! सम्मुख है मस्तक नत मेरा,
एक कसक रह गयी, नहीं पूरा जीवन का व्रत मेरा।
गुरु की कृपा! शाप से जलकर अभी भस्म हो जाऊँगा,
पर, मदान्ध अर्जुन का मस्तक देव! कहाँ मैं पाऊँगा?
'यह तृष्णा, यह विजय-कामना, मुझे छोड़ क्या पायेगी?
प्रभु, अतृप्त वासना मरे पर भी मुझे को भरमायेगी।
दुर्योधन की हार देवता! कैसे सहन करूँगा मैं?
अभय देख अर्जुन को मरकर भी तो रोज मरूँगा मैं?
'परशुराम का शिष्य कर्ण, पर, जीवन-दान न माँगेगा,
बड़ी शान्ति के साथ चरण को पकड़ प्राण निज त्यागेगा।
प्रस्तुत हूँ, दें शाप, किन्तु अन्तिम सुख तो यह पाने दें,
इन्हीं पाद-पद्मों के ऊपर मुझको प्राण गँवाने दें।'
लिपट गया गुरु के चरणों से विकल कर्ण इतना कहकर,
दो कणिकाएँ गिरीं अश्रु की गुरु की आँखों से बह कर।
बोले- 'हाय, कर्ण तू ही प्रतिभट अर्जुन का नामी है?
निश्चल सखा धार्तराष्ट्रों का, विश्व-विजय का कामी है?
'अब समझा, किसलिए रात-दिन तू वैसा श्रम करता था,
मेरे शब्द-शब्द को मन में क्यों सीपी-सा धरता था।
देखें अगणित शिष्य, द्रोण को भी करतब कुछ सिखलाया,
पर तुझ-सा जिज्ञासु आज तक कभी नहीं मैंने पाया।
क्या था पता, लूटने आया है कोई मुझको छल से?
किसी और पर नहीं किया, वैसा सनेह मैं करता था,
सोने पर भी धनुर्वेद का, ज्ञान कान में भरता था।
'नहीं किया कार्पण्य, दिया जो कुछ था मेरे पास रतन,
तुझमें निज को सौंप शान्त हो, अभी-अभी प्रमुदित था मन।
पापी, बोल अभी भी मुख से, तू न सूत, रथचालक है,
परशुराम का शिष्य विक्रमी, विप्रवंश का बालक है।
'सूत-वंश में मिला सूर्य-सा कैसे तेज प्रबल तुझको?
किसने लाकर दिये, कहाँ से कवच और कुण्डल तुझको?
सुत-सा रखा जिसे, उसको कैसे कठोर हो मारूँ मैं?
जलते हुए क्रोध की ज्वाला, लेकिन कहाँ उतारूँ मैं?'
पद पर बोला कर्ण, 'दिया था जिसको आँखों का पानी,
करना होगा ग्रहण उसी को अनल आज हे गुरु ज्ञानी।
बरसाइये अनल आँखों से, सिर पर उसे सँभालूँगा,
दण्ड भोग जलकर मुनिसत्तम! छल का पाप छुड़ा लूँगा।'
परशुराम ने कहा-'कर्ण! तू बेध नहीं मुझको ऐसे,
तुझे पता क्या सता रहा है मुझको असमञ्जस कैसे?
पर, तूने छल किया, दण्ड उसका, अवश्य ही पायेगा,
परशुराम का क्रोध भयानक निष्फल कभी न जायेगा।
'मान लिया था पुत्र, इसी से, प्राण-दान तो देता हूँ,
पर, अपनी विद्या का अन्तिम चरम तेज हर लेता हूँ।
सिखलाया ब्रह्मास्त्र तुझे जो, काम नहीं वह आयेगा,
है यह मेरा शाप, समय पर उसे भूल तू जायेगा।
कर्ण विकल हो खड़ा हुआ कह, 'हाय! किया यह क्या गुरुवर?
दिया शाप अत्यन्त निदारुण, लिया नहीं जीवन क्यों हर?
वर्षों की साधना, साथ ही प्राण नहीं क्यों लेते हैं?
अब किस सुख के लिए मुझे धरती पर जीने देते हैं?'
परशुराम ने कहा- 'कर्ण! यह शाप अटल है, सहन करो,
जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले सादर वहन करो।
इस महेन्द्र-गिरि पर तुमने कुछ थोड़ा नहीं कमाया है,
मेरा संचित निखिल ज्ञान तूने मझसे ही पाया है।
'रहा नहीं ब्रह्मास्त्र एक, इससे क्या आता-जाता है?
एक शस्त्र-बल से न वीर, कोई सब दिन कहलाता है।
नयी कला, नूतन रचनाएँ, नयी सूझ नूतन साधन,
नये भाव, नूतन उमंग से , वीर बने रहते नूतन।
'तुम तो स्वयं दीप्त पौरुष हो, कवच और कुण्डल-धारी,
इनके रहते तुम्हें जीत पायेगा कौन सुभट भारी।
अच्छा लो वर भी कि विश्व में तुम महान् कहलाओगे,
भारत का इतिहास कीर्ति से और धवल कर जाओगे।
'अब जाओ, लो विदा वत्स, कुछ कड़ा करो अपने मन को,
रहने देते नहीं यहाँ पर हम अभिशप्त किसी जन को।
हाय छीनना पड़ा मुझी को, दिया हुआ अपना ही धन,
सोच-सोच यह बहुत विकल हो रहा, नहीं जानें क्यों मन?
'व्रत का, पर निर्वाह कभी ऐसे भी करना होता है।
इस कर से जो दिया उसे उस कर से हरना होता है।
अब जाओ तुम कर्ण! कृपा करके मुझको निःसंग करो।
देखो मत यों सजल दृष्टि से, व्रत मेरा मत भंग करो।
'आह, बुद्धि कहती कि ठीक था, जो कुछ किया, परन्तु हृदय,
मुझसे कर विद्रोह तुम्हारी मना रहा, जाने क्यों, जय?
अनायास गुण-शील तुम्हारे, मन में उगते आते हैं,
भीतर किसी अश्रु-गंगा में मुझे बोर नहलाते हैं।
जाओ, जाओ कर्ण! मुझे बिलकुल असंग हो जाने दो
बैठ किसी एकान्त कुंज में मन को स्वस्थ बनाने दो।
भय है, तुम्हें निराश देखकर छाती कहीं न फट जाये,
फिरा न लूँ अभिशाप, पिघलकर वाणी नहीं उलट जाये।'
इस प्रकार कह परशुराम ने फिरा लिया आनन अपना,
जहाँ मिला था, वहीं कर्ण का बिखर गया प्यारा सपना।
छूकर उनका चरण कर्ण ने अर्घ्य अश्रु का दान किया,
और उन्हें जी-भर निहार कर मंद-मंद प्रस्थान किया।
परशुधर के चरण की धूलि लेकर,
उन्हें, अपने हृदय की भक्ति देकर,
निराशा सेविकल, टूटा हुआ-सा,
किसी गिरि-श्रृंगा से छूटा हुआ-सा,
चला खोया हुआ-सा कर्ण मन में,
कि जैसे चाँद चलता हो गगन में।
रश्मिरथी - रामधारी सिंह "दिनकर" "प्रथम सर्ग"
रश्मिरथी का अर्थ होता है वह व्यक्ति, जिसका रथ रश्मि अर्थात पुण्य का हो। इस काव्य में रश्मिरथी नाम कर्ण का है क्योंकि उसका चरित्र अत्यन्त पुण्यमय और प्रोज्जवल है।
कर्ण महाभारत महाकाव्य का अत्यन्त यशस्वी पात्र है। उसका जन्म पाण्डवों की माता कुन्ती के गर्भ से उस समय हुआ जब कुन्ती अविवाहिता थीं, अतएव, कुन्ती ने लोकलज्जा से बचने के लिए, अपने नवजात शिशु को एक मंजूषा में बन्द करके नदी में बहा दिया। वह मंजूषा अधिरथ नाम के सुत को मिली। अधिरथ के कोई सन्तान नहीं थी। इसलिए, उन्होंने इस बच्चे को अपना पुत्र मान लिया। उनकी धर्मपत्नी का नाम राधा था। राधा से पालित होने के कारण ही कर्ण का एक नाम राधेय भी है।
कौरव-पाण्डव का वंश परिचय यह है कि दोनों महाराज शान्तनु के कुल में उत्पन्न हुए। शान्तनु से कई पीढ़ी ऊपर महाराज कुरु हुए थे। इसलिए, कौरव-पाण्डव दोनों कुरुवंशी कहलाते हैं। शान्तनु का विवाह गंगाजी से हुआ था, जिनसे कुमार देवव्रत उत्पन्न हुए। यही देवव्रत भीष्म कहलाये, क्योंकि चढ़ती जवानी में ही इन्होंने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की भीष्म अथवा भयानक प्रतिज्ञा की थी। महाराज शान्तनु ने निषाद-कन्या सत्यवती से भी विवाह किया था, जिससे उन्हें चित्रांगद और विचित्रवीर्य दो पुत्र हुए। चित्रांगद कुमारावस्था में ही एक युद्ध में मारे गये। विचित्रवीर्य के अम्बिका और अम्बालिका नाम की दो पत्नियां थीं, किन्तु, क्षय रोग हो जाने के कारण विचित्रवीर्य भी निःसंतान ही मरे।
ऐसी अवस्था में वंश चलाने के लिए सत्यवती ने व्यासजी को आमन्त्रित किया। व्यासजी ने नियोग-पद्घति से विचित्रवीर्य की दोनों विधवा पत्नियों से पुत्र उत्पन्न किये। अम्बिका से धृतराष्ट्र और अम्बालिका से पाण्डु जन्मे। मातृ-दोष से धृतराष्ट्र जन्म से ही अन्धे और पाण्डु पीलिया के रोगी थे। अतएव, अम्बिका की प्रेरणा से व्यासजी ने उसकी दासी से तीसरा पुत्र उत्पन्न किया जिसका नाम विदुर हुआ।
राजा धृतराष्ट्र के सौ पुत्र एक ही पत्नी महारानी गन्धारी से हुए थे। महाराज पाण्डु के दो पत्नियां थीं, एक कुन्ती, दूसरी माद्री। परन्तु, ऋषि से मिले शाप के कारण वे स्त्री-समागम से विरत थे। अतएव, कुन्ती ने अपने पति की आज्ञा से तीन पुत्र तीन देवताओं से प्राप्त किये। जैसे कुमारावस्था में कुन्ती ने सूर्य-समागम से कर्ण को उत्पन्न किया था, उसी प्रकार; विवाह होने पर उसने धर्मराज से युधिष्ठिर, पवनदेव से भीम और इन्द्र से अर्जुन को उत्पन्न किया। माद्री के एक ही गर्भ से दो पुत्र हुए, एक नकुल, दूसरे सहदेव- ये दोनों भाई भी महाराज पाण्डु के अंश नहीं, दो अश्विनीकुमारों के अंश से थे। पाण्डु के मरने पर माद्री सती हो गयीं और पाँचों पुत्रों के पालन का भार कुन्ती पर पड़ा। माद्री महाराज शल्य की बहन थीं।
प्रथम सर्ग
'जय हो' जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊँच-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।
अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आँखों से दूर।
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।
समझे कौन रहस्य ? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, 'तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।'
'तूने जो-जो किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।'
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टँगी जन-जन की।
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।
राजवंश के नेताओं पर पड़ी विपद् अति भारी।
द्रोण, भीष्म, अर्जुन, सब फीके, सब हो रहे उदास,
एक सुयोधन बढ़ा, बोलते हुए, 'वीर! शाबाश !'
द्वन्द्व-युद्ध के लिए पार्थ को फिर उसने ललकारा,
अर्जुन को चुप ही रहने का गुरु ने किया इशारा।
कृपाचार्य ने कहा- 'सुनो हे वीर युवक अनजान'
भरत-वंश-अवतंस पाण्डु की अर्जुन है संतान।
'क्षत्रिय है, यह राजपुत्र है, यों ही नहीं लड़ेगा,
जिस-तिस से हाथापाई में कैसे कूद पड़ेगा?
अर्जुन से लड़ना हो तो मत गहो सभा में मौन,
नाम-धाम कुछ कहो, बताओ कि तुम जाति हो कौन?'
'जाति! हाय री जाति !' कर्ण का हृदय क्षोभ से डोला,
कुपित सूर्य की ओर देख वह वीर क्रोध से बोला
'जाति-जाति रटते, जिनकी पूँजी केवल पाषंड,
मैं क्या जानूँ जाति ? जाति हैं ये मेरे भुजदंड।
'ऊपर सिर पर कनक-छत्र, भीतर काले-के-काले,
शरमाते हैं नहीं जगत् में जाति पूछनेवाले।
सूत्रपुत्र हूँ मैं, लेकिन थे पिता पार्थ के कौन?
साहस हो तो कहो, ग्लानि से रह जाओ मत मौन।
'मस्तक ऊँचा किये, जाति का नाम लिये चलते हो,
पर, अधर्ममय शोषण के बल से सुख में पलते हो।
अधम जातियों से थर-थर काँपते तुम्हारे प्राण,
छल से माँग लिया करते हो अंगूठे का दान।
'पूछो मेरी जाति , शक्ति हो तो, मेरे भुजबल से'
रवि-समान दीपित ललाट से और कवच-कुण्डल से,
पढ़ो उसे जो झलक रहा है मुझमें तेज-प़काश,
मेरे रोम-रोम में अंकित है मेरा इतिहास।
'अर्जुन बङ़ा वीर क्षत्रिय है, तो आगे वह आवे,
क्षत्रियत्व का तेज जरा मुझको भी तो दिखलावे।
अभी छीन इस राजपुत्र के कर से तीर-कमान,
अपनी महाजाति की दूँगा मैं तुमको पहचान।'
कृपाचार्य ने कहा ' वृथा तुम क्रुद्ध हुए जाते हो,
साधारण-सी बात, उसे भी समझ नहीं पाते हो।
राजपुत्र से लड़े बिना होता हो अगर अकाज,
अर्जित करना तुम्हें चाहिये पहले कोई राज।'
कर्ण हतप्रभ हुआ तनिक, मन-ही-मन कुछ भरमाया,
सह न सका अन्याय , सुयोधन बढ़कर आगे आया।
बोला-' बड़ा पाप है करना, इस प्रकार, अपमान,
उस नर का जो दीप रहा हो सचमुच, सूर्य समान।
'मूल जानना बड़ा कठिन है नदियों का, वीरों का,
धनुष छोड़ कर और गोत्र क्या होता रणधीरों का?
पाते हैं सम्मान तपोबल से भूतल पर शूर,
'जाति-जाति' का शोर मचाते केवल कायर क्रूर।
'किसने देखा नहीं, कर्ण जब निकल भीड़ से आया,
अनायास आतंक एक सम्पूर्ण सभा पर छाया।
कर्ण भले ही सूत्रोपुत्र हो, अथवा श्वपच, चमार,
मलिन, मगर, इसके आगे हैं सारे राजकुमार।
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।
'अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।'
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।
कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-'बन्धु! हो शान्त,
मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्भ्रान्त?
'किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!
अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।'
कर्ण और गल गया,' हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!
वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।
'भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।
उऋण भला होऊँगा उससे चुका कौन-सा दाम?
कृपा करें दिनमान कि आऊँ तेरे कोई काम।'
घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,
होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।
चाहे जो भी कहे द्वेष, ईर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।
रंग-भूमि भर गयी चतुर्दिक् पुलकाकुल कलकल से।
विनयपूर्ण प्रतिवन्दन में ज्यों झुका कर्ण सविशेष,
जनता विकल पुकार उठी, 'जय महाराज अंगेश।
'महाराज अंगेश!' तीर-सा लगा हृदय में जा के,
विफल क्रोध में कहा भीम ने और नहीं कुछ पा के।
'हय की झाड़े पूँछ, आज तक रहा यही तो काज,
सूत-पुत्र किस तरह चला पायेगा कोई राज?'
दुर्योधन ने कहा-'भीम ! झूठे बकबक करते हो,
कहलाते धर्मज्ञ, द्वेष का विष मन में धरते हो।
बड़े वंश से क्या होता है, खोटे हों यदि काम?
नर का गुण उज्जवल चरित्र है, नहीं वंश-धन-धान।
'सचमुच ही तो कहा कर्ण ने, तुम्हीं कौन हो, बोलो,
जनमे थे किस तरह? ज्ञात हो, तो रहस्य यह खोलो?
अपना अवगुण नहीं देखता, अजब जगत् का हाल,
निज आँखों से नहीं सुझता, सच है अपना भाल।
कृपाचार्य आ पड़े बीच में, बोले 'छिः! यह क्या है?
तुम लोगों में बची नाम को भी क्या नहीं हया है?
चलो, चलें घर को, देखो; होने को आयी शाम,
थके हुए होगे तुम सब, चाहिए तुम्हें आराम।'
रंग-भूमि से चले सभी पुरवासी मोद मनाते,
कोई कर्ण, पार्थ का कोई-गुण आपस में गाते।
सबसे अलग चले अर्जुन को लिए हुए गुरु द्रोण,
कहते हुए -'पार्थ! पहुँचा यह राहु नया फिर कौन?
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।
'मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्भट भट बांल,
अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!
'सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
शिष्य बनाऊँगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात;
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!'
रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
कञ्चन के युग शैल-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ' कर्ण।
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का स्निग्ध-सुकोमल कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्ध अवसान,
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।