हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
- पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सदृश तप कर,
- वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति जब आती है,
- कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
- क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
- संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
- उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विघ्न ऐसा जग में,
- टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
- पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
- हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
- वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
- झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
- बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।
वसुधा का नेता कौन हुआ?
- भूखण्ड-विजेता कौन हुआ?
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ?
- नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ?
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।
जब विघ्न सामने आते हैं,
- सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
- तन को झँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।
वाटिका और वन एक नहीं,
- आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
- पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।
कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
- छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
- लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।
बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
- मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
- तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है?
वर्षों तक वन में घूम-घूम,
- बाधा-विघ्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
- पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।
मैत्री की राह बताने को,
- सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
- भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
'दो न्याय अगर तो आधा दो,
- पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
- रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
- आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
- जो था असाध्य, साधने चला।
जन नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
- अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
- भगवान् कुपित होकर बोले-
'जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
- यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
- मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
'उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
- भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
- मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
'दृग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
- मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
- नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।
'शत कोटि विष्णु, ब्रह्मा, महेश,
- शत कोटि विष्णु जलपति, धनेश,
शत कोटि रुद्र, शत कोटि काल,
- शत कोटि दण्डधर लोकपाल।
जञ्जीर बढ़ाकर साध इन्हें,
हाँ-हाँ दुर्योधन! बाँध इन्हें।
'भूलोक, अतल, पाताल देख,
- गत और अनागत काल देख,
यह देख जगत का आदि-सृजन,
- यह देख, महाभारत का रण,
मृतकों से पटी हुई भू है,
पहचान, कहाँ इसमें तू है।
'अम्बर में कुन्तल-जाल देख,
- पद के नीचे पाताल देख,
मुट्ठी में तीनों काल देख,
- मेरा स्वरूप विकराल देख।
सब जन्म मुझी से पाते हैं,
फिर लौट मुझी में आते हैं।
'जिह्वा से कढ़ती ज्वाल सघन,
- साँसों में पाता जन्म पवन,
पड़ जाती मेरी दृष्टि जिधर,
- हँसने लगती है सृष्टि उधर!
मैं जभी मूँदता हूँ लोचन,
छा जाता चारों ओर मरण।
'बाँधने मुझे तो आया है,
- जंजीर बड़ी क्या लाया है?
यदि मुझे बाँधना चाहे मन,
- पहले तो बाँध अनन्त गगन।
सूने को साध न सकता है,
वह मुझे बाँध कब सकता है?
'हित-वचन नहीं तूने माना,
- मैत्री का मूल्य न पहचाना,
तो ले, मैं भी अब जाता हूँ,
- अन्तिम संकल्प सुनाता हूँ।
याचना नहीं, अब रण होगा,
जीवन-जय या कि मरण होगा।
'टकरायेंगे नक्षत्र-निकर,
- बरसेगी भू पर वह्नि प्रखर,
फण शेषनाग का डोलेगा,
- विकराल काल मुँह खोलेगा।
दुर्योधन! रण ऐसा होगा।
फिर कभी नहीं जैसा होगा।
'भाई पर भाई टूटेंगे,
- विष-बाण बूँद-से छूटेंगे,
वायस-श्रृगाल सुख लूटेंगे,
- सौभाग्य मनुज के फूटेंगे।
आखिर तू भूशायी होगा,
हिंसा का पर, दायी होगा।'
थी सभा सन्न, सब लोग डरे,
- चुप थे या थे बेहोश पड़े।
केवल दो नर ना अघाते थे,
- धृतराष्ट्र-विदुर सुख पाते थे।
कर जोड़ खड़े प्रमुदित, निर्भय,
दोनों पुकारते थे 'जय-जय'!
भगवान सभा को छोड़ चले,
- करके रण गर्जन घोर चले
सामने कर्ण सकुचाया सा,
- आ मिला चकित भरमाया सा
हरि बड़े प्रेम से कर धर कर,
ले चढ़े उसे अपने रथ पर
रथ चला परस्पर बात चली,
- शम-दम की टेढी घात चली,
शीतल हो हरि ने कहा, "हाय,
- अब शेष नही कोई उपाय
हो विवश हमें धनु धरना है,
क्षत्रिय समूह को मरना है
"मैंने कितना कुछ कहा नहीं?
- विष-व्यंग कहाँ तक सहा नहीं?
पर, दुर्योधन मतवाला है,
- कुछ नहीं समझने वाला है
चाहिए उसे बस रण केवल,
सारी धरती कि मरण केवल
"हे वीर ! तुम्हीं बोलो अकाम,
- क्या वस्तु बड़ी थी पाँच ग्राम?
वह भी कौरव को भारी है,
- मति गई मूढ़ की मरी है
दुर्योधन को बोधूं कैसे?
इस रण को अवरोधूं कैसे?
"सोचो क्या दृश्य विकट होगा,
- रण में जब काल प्रकट होगा?
बाहर शोणित की तप्त धार,
- भीतर विधवाओं की पुकार
निरशन, विषण्ण बिल्लायेंगे,
बच्चे अनाथ चिल्लायेंगे
"चिंता है, मैं क्या और करूं?
- शान्ति को छिपा किस ओट धरूँ?
सब राह बंद मेरे जाने,
- हाँ एक बात यदि तू माने,
तो शान्ति नहीं जल सकती है,
समराग्नि अभी तल सकती है
"पा तुझे धन्य है दुर्योधन,
- तू एकमात्र उसका जीवन
तेरे बल की है आस उसे,
- तुझसे जय का विश्वास उसे
तू संग न उसका छोडेगा,
वह क्यों रण से मुख मोड़ेगा?
"क्या अघटनीय घटना कराल?
- तू पृथा-कुक्षी का प्रथम लाल,
बन सूत अनादर सहता है,
- कौरव के दल में रहता है,
शर-चाप उठाये आठ प्रहार,
पांडव से लड़ने हो तत्पर
"माँ का सनेह पाया न कभी,
- सामने सत्य आया न कभी,
किस्मत के फेरे में पड़ कर,
- पा प्रेम बसा दुश्मन के घर
निज बंधू मानता है पर को,
कहता है शत्रु सहोदर को
"पर कौन दोष इसमें तेरा?
- अब कहा मान इतना मेरा
चल होकर संग अभी मेरे,
- है जहाँ पाँच भ्राता तेरे
बिछुड़े भाई मिल जायेंगे,
हम मिलकर मोद मनाएंगे
"कुन्ती का तू ही तनय ज्येष्ठ,
- बल बुद्धि, शील में परम श्रेष्ठ
मस्तक पर मुकुट धरेंगे हम,
- तेरा अभिषेक करेंगे हम
आरती समोद उतारेंगे,
सब मिलकर पाँव पखारेंगे
"पद-त्राण भीम पहनायेगा,
- धर्माचिप चंवर डुलायेगा
पहरे पर पार्थ प्रवर होंगे,
- सहदेव-नकुल अनुचर होंगे
भोजन उत्तरा बनायेगी,
पांचाली पान खिलायेगी
"आहा ! क्या दृश्य सुभग होगा !
- आनंद-चमत्कृत जग होगा
सब लोग तुझे पहचानेंगे,
- असली स्वरूप में जानेंगे
खोयी मणि को जब पायेगी,
कुन्ती फूली न समायेगी
"रण अनायास रुक जायेगा,
- कुरुराज स्वयं झुक जायेगा
संसार बड़े सुख में होगा,
- कोई न कहीं दुःख में होगा
सब गीत खुशी के गायेंगे,
तेरा सौभाग्य मनाएंगे
"कुरुराज्य समर्पण करता हूँ,
- साम्राज्य समर्पण करता हूँ
यश मुकुट मान सिंहासन ले,
- बस एक भीख मुझको दे दे
कौरव को तज रण रोक सखे,
भू का हर भावी शोक सखे
सुन-सुन कर कर्ण अधीर हुआ,
- क्षण एक तनिक गंभीर हुआ,
फिर कहा "बड़ी यह माया है,
- जो कुछ आपने बताया है
दिनमणि से सुनकर वही कथा
मैं भोग चुका हूँ ग्लानि व्यथा
"मैं ध्यान जन्म का धरता हूँ,
- उन्मन यह सोचा करता हूँ,
कैसी होगी वह माँ कराल,
- निज तन से जो शिशु को निकाल
धाराओं में धर आती है,
अथवा जीवित दफनाती है?
"सेवती मास दस तक जिसको,
- पालती उदर में रख जिसको,
जीवन का अंश खिलाती है,
- अन्तर का रुधिर पिलाती है
आती फिर उसको फ़ेंक कहीं,
नागिन होगी वह नारि नहीं
"हे कृष्ण आप चुप ही रहिये,
- इस पर न अधिक कुछ भी कहिये
सुनना न चाहते तनिक श्रवण,
- जिस माँ ने मेरा किया जनन
वह नहीं नारि कुल्पाली थी,
सर्पिणी परम विकराली थी
"पत्थर समान उसका हिय था,
- सुत से समाज बढ़ कर प्रिय था
गोदी में आग लगा कर के,
- मेरा कुल-वंश छिपा कर के
दुश्मन का उसने काम किया,
माताओं को बदनाम किया
"माँ का पय भी न पीया मैंने,
- उलटे अभिशाप लिया मैंने
वह तो यशस्विनी बनी रही,
- सबकी भौ मुझ पर तनी रही
कन्या वह रही अपरिणीता,
जो कुछ बीता, मुझ पर बीता
"मैं जाती गोत्र से दीन, हीन,
- राजाओं के सम्मुख मलीन,
जब रोज अनादर पाता था,
- कह 'शूद्र' पुकारा जाता था
पत्थर की छाती फटी नही,
कुन्ती तब भी तो कटी नहीं
"मैं सूत-वंश में पलता था,
- अपमान अनल में जलता था,
सब देख रही थी दृश्य पृथा,
- माँ की ममता पर हुई वृथा
छिप कर भी तो सुधि ले न सकी
छाया अंचल की दे न सकी
"पा पाँच तनय फूली फूली,
- दिन-रात बड़े सुख में भूली
कुन्ती गौरव में चूर रही,
- मुझ पतित पुत्र से दूर रही
क्या हुआ की अब अकुलाती है?
किस कारण मुझे बुलाती है?
"क्या पाँच पुत्र हो जाने पर,
- सुत के धन धाम गंवाने पर
या महानाश के छाने पर,
- अथवा मन के घबराने पर
नारियाँ सदय हो जाती हैं
बिछुडोँ को गले लगाती है?
"कुन्ती जिस भय से भरी रही,
- तज मुझे दूर हट खड़ी रही
वह पाप अभी भी है मुझमें,
- वह शाप अभी भी है मुझमें
क्या हुआ की वह डर जायेगा?
कुन्ती को काट न खायेगा?
"सहसा क्या हाल विचित्र हुआ,
- मैं कैसे पुण्य-चरित्र हुआ?
कुन्ती का क्या चाहता ह्रदय,
- मेरा सुख या पांडव की जय?
यह अभिनन्दन नूतन क्या है?
केशव! यह परिवर्तन क्या है?
"मैं हुआ धनुर्धर जब नामी,
- सब लोग हुए हित के कामी
पर ऐसा भी था एक समय,
- जब यह समाज निष्ठुर निर्दय
किंचित न स्नेह दर्शाता था,
विष-व्यंग सदा बरसाता था
"उस समय सुअंक लगा कर के,
- अंचल के तले छिपा कर के
चुम्बन से कौन मुझे भर कर,
- ताड़ना-ताप लेती थी हर?
राधा को छोड़ भजूं किसको,
जननी है वही, तजूं किसको?
"हे कृष्ण ! ज़रा यह भी सुनिए,
- सच है की झूठ मन में गुनिये
धूलों में मैं था पडा हुआ,
- किसका सनेह पा बड़ा हुआ?
किसने मुझको सम्मान दिया,
नृपता दे महिमावान किया?
"अपना विकास अवरुद्ध देख,
- सारे समाज को क्रुद्ध देख
भीतर जब टूट चुका था मन,
- आ गया अचानक दुर्योधन
निश्छल पवित्र अनुराग लिए,
मेरा समस्त सौभाग्य लिए
"कुन्ती ने केवल जन्म दिया,
- राधा ने माँ का कर्म किया
पर कहते जिसे असल जीवन,
- देने आया वह दुर्योधन
वह नहीं भिन्न माता से है
बढ़ कर सोदर भ्राता से है
"राजा रंक से बना कर के,
- यश, मान, मुकुट पहना कर के
बांहों में मुझे उठा कर के,
- सामने जगत के ला करके
करतब क्या क्या न किया उसने
मुझको नव-जन्म दिया उसने
"है ऋणी कर्ण का रोम-रोम,
- जानते सत्य यह सूर्य-सोम
तन मन धन दुर्योधन का है,
- यह जीवन दुर्योधन का है
सुर पुर से भी मुख मोडूँगा,
केशव ! मैं उसे न छोडूंगा
"सच है मेरी है आस उसे,
- मुझ पर अटूट विश्वास उसे
हाँ सच है मेरे ही बल पर,
- ठाना है उसने महासमर
पर मैं कैसा पापी हूँगा?
दुर्योधन को धोखा दूँगा?
"रह साथ सदा खेला खाया,
- सौभाग्य-सुयश उससे पाया
अब जब विपत्ति आने को है,
- घनघोर प्रलय छाने को है
तज उसे भाग यदि जाऊंगा
कायर, कृतघ्न कहलाऊँगा
"कुन्ती का मैं भी एक तनय,
- जिसको होगा इसका प्रत्यय
संसार मुझे धिक्कारेगा,
- मन में वह यही विचारेगा
फिर गया तुरत जब राज्य मिला,
यह कर्ण बड़ा पापी निकला
"मैं ही न सहूंगा विषम डंक,
- अर्जुन पर भी होगा कलंक
सब लोग कहेंगे डर कर ही,
- अर्जुन ने अद्भुत नीति गही
चल चाल कर्ण को फोड़ लिया
सम्बन्ध अनोखा जोड़ लिया
"कोई भी कहीं न चूकेगा,
- सारा जग मुझ पर थूकेगा
तप त्याग शील, जप योग दान,
- मेरे होंगे मिट्टी समान
लोभी लालची कहाऊँगा
किसको क्या मुख दिखलाऊँगा?
"जो आज आप कह रहे आर्य,
- कुन्ती के मुख से कृपाचार्य
सुन वही हुए लज्जित होते,
- हम क्यों रण को सज्जित होते
मिलता न कर्ण दुर्योधन को,
पांडव न कभी जाते वन को
"लेकिन नौका तट छोड़ चली,
- कुछ पता नहीं किस ओर चली
यह बीच नदी की धारा है,
- सूझता न कूल-किनारा है
ले लील भले यह धार मुझे,
लौटना नहीं स्वीकार मुझे
"धर्माधिराज का ज्येष्ठ बनूँ,
- भारत में सबसे श्रेष्ठ बनूँ?
कुल की पोशाक पहन कर के,
- सिर उठा चलूँ कुछ तन कर के?
इस झूठ-मूठ में रस क्या है?
केशव ! यह सुयश - सुयश क्या है?
"सिर पर कुलीनता का टीका,
- भीतर जीवन का रस फीका
अपना न नाम जो ले सकते,
- परिचय न तेज से दे सकते
ऐसे भी कुछ नर होते हैं
कुल को खाते औ' खोते हैं
"विक्रमी पुरुष लेकिन सिर पर,
- चलता ना छत्र पुरखों का धर.
अपना बल-तेज जगाता है,
- सम्मान जगत से पाता है.
सब देख उसे ललचाते हैं,
कर विविध यत्न अपनाते हैं
"कुल-गोत्र नही साधन मेरा,
- पुरुषार्थ एक बस धन मेरा.
कुल ने तो मुझको फेंक दिया,
- मैने हिम्मत से काम लिया
अब वंश चकित भरमाया है,
खुद मुझे ढूँडने आया है.
"लेकिन मैं लौट चलूँगा क्या?
- अपने प्रण से विचरूँगा क्या?
रण मे कुरूपति का विजय वरण,
- या पार्थ हाथ कर्ण का मरण,
हे कृष्ण यही मति मेरी है,
तीसरी नही गति मेरी है.
"मैत्री की बड़ी सुखद छाया,
- शीतल हो जाती है काया,
धिक्कार-योग्य होगा वह नर,
- जो पाकर भी ऐसा तरुवर,
हो अलग खड़ा कटवाता है
खुद आप नहीं कट जाता है.
"जिस नर की बाह गही मैने,
- जिस तरु की छाँह गहि मैने,
उस पर न वार चलने दूँगा,
- कैसे कुठार चलने दूँगा,
जीते जी उसे बचाऊँगा,
या आप स्वयं कट जाऊँगा,
"मित्रता बड़ा अनमोल रतन,
- कब उसे तोल सकता है धन?
धरती की तो है क्या बिसात?
- आ जाय अगर बैकुंठ हाथ.
उसको भी न्योछावर कर दूँ,
कुरूपति के चरणों में धर दूँ.
"सिर लिए स्कंध पर चलता हूँ,
- उस दिन के लिए मचलता हूँ,
यदि चले वज्र दुर्योधन पर,
- ले लूँ बढ़कर अपने ऊपर.
कटवा दूँ उसके लिए गला,
चाहिए मुझे क्या और भला?
"सम्राट बनेंगे धर्मराज,
- या पाएगा कुरूरज ताज,
लड़ना भर मेरा कम रहा,
- दुर्योधन का संग्राम रहा,
मुझको न कहीं कुछ पाना है,
केवल ऋण मात्र चुकाना है.
"कुरूराज्य चाहता मैं कब हूँ?
- साम्राज्य चाहता मैं कब हूँ?
क्या नहीं आपने भी जाना?
- मुझको न आज तक पहचाना?
जीवन का मूल्य समझता हूँ,
धन को मैं धूल समझता हूँ.
"धनराशि जोगना लक्ष्य नहीं,
- साम्राज्य भोगना लक्ष्य नहीं.
भुजबल से कर संसार विजय,
- अगणित समृद्धियों का सन्चय,
दे दिया मित्र दुर्योधन को,
तृष्णा छू भी ना सकी मन को.
"वैभव विलास की चाह नहीं,
- अपनी कोई परवाह नहीं,
बस यही चाहता हूँ केवल,
- दान की देव सरिता निर्मल,
करतल से झरती रहे सदा,
निर्धन को भरती रहे सदा.
"तुच्छ है राज्य क्या है केशव?
- पाता क्या नर कर प्राप्त विभव?
चिंता प्रभूत, अत्यल्प हास,
- कुछ चाकचिक्य, कुछ पल विलास,
पर वह भी यहीं गवाना है,
कुछ साथ नही ले जाना है.
"मुझसे मनुष्य जो होते हैं,
- कंचन का भार न ढोते हैं,
पाते हैं धन बिखराने को,
- लाते हैं रतन लुटाने को,
जग से न कभी कुछ लेते हैं,
दान ही हृदय का देते हैं.
"प्रासादों के कनकाभ शिखर,
- होते कबूतरों के ही घर,
महलों में गरुड़ ना होता है,
- कंचन पर कभी न सोता है.
रहता वह कहीं पहाड़ों में,
शैलों की फटी दरारों में.
"होकर सुख-समृद्धि के अधीन,
- मानव होता निज तप क्षीण,
सत्ता किरीट मणिमय आसन,
- करते मनुष्य का तेज हरण.
नर विभव हेतु लालचाता है,
पर वही मनुज को खाता है.
"चाँदनी पुष्प-छाया मे पल,
- नर भले बने सुमधुर कोमल,
पर अमृत क्लेश का पिए बिना,
- आताप अंधड़ में जिए बिना,
वह पुरुष नही कहला सकता,
विघ्नों को नही हिला सकता.
"उड़ते जो झंझावतों में,
- पीते सो वारी प्रपातो में,
सारा आकाश अयन जिनका,
- विषधर भुजंग भोजन जिनका,
वे ही फानिबंध छुड़ाते हैं,
धरती का हृदय जुड़ाते हैं.
"मैं गरुड़ कृष्ण मै पक्षिराज,
- सिर पर ना चाहिए मुझे ताज.
दुर्योधन पर है विपद घोर,
- सकता न किसी विधि उसे छोड़,
रण-खेत पाटना है मुझको,
अहिपाश काटना है मुझको.
"संग्राम सिंधु लहराता है,
- सामने प्रलय घहराता है,
रह रह कर भुजा फड़कती है,
- बिजली-सी नसें कड़कतीं हैं,
चाहता तुरत मैं कूद पडू,
जीतूं की समर मे डूब मरूं.
"अब देर नही कीजै केशव,
- अवसेर नही कीजै केशव.
धनु की डोरी तन जाने दें,
- संग्राम तुरत ठन जाने दें,
तांडवी तेज लहराएगा,
संसार ज्योति कुछ पाएगा.
"हाँ, एक विनय है मधुसूदन,
- मेरी यह जन्मकथा गोपन,
मत कभी युधिष्ठिर से कहिए,
- जैसे हो इसे छिपा रहिए,
वे इसे जान यदि पाएँगे,
सिंहासन को ठुकराएँगे.
"साम्राज्य न कभी स्वयं लेंगे,
- सारी संपत्ति मुझे देंगे.
मैं भी ना उसे रख पाऊँगा,
- दुर्योधन को दे जाऊँगा.
पांडव वंचित रह जाएँगे,
दुख से न छूट वे पाएँगे.
"अच्छा अब चला प्रमाण आर्य,
- हो सिद्ध समर के शीघ्र कार्य.
रण मे ही अब दर्शन होंगे,
- शार से चरण:स्पर्शन होंगे.
जय हो दिनेश नभ में विहरें,
भूतल मे दिव्य प्रकाश भरें."
रथ से रधेय उतार आया,
- हरि के मन मे विस्मय छाया,
बोले कि "वीर शत बार धन्य,
- तुझसा न मित्र कोई अनन्य,
तू कुरूपति का ही नही प्राण,
नरता का है भूषण महान."
No comments:
Post a Comment